३२ ][ श्री जिनेन्द्र
आरज खंड विहार करो भविजनको पार उतारे,
दुविध परम विस्तारी रे. बलिहारी तु० ४
और अघाती चार करम तिनको तुमने जब भांजे,
निराकार अविकार निरंजन अजर अमर पद साजे,
तीन लोकके शिखर आप जाय बिराजे,
आवागमन निवारी रे. बलिहारी तु० ५
चार ज्ञानके धारक गणधर तिनहुं पार न पावें,
इन्द्र चन्द्र धरनेन्द्र सुनी चरणारविंद तुम ध्यावें,
अमुलीक नंद कहे मतिमंद ‘हीराचंद’ कहा लग गुण गावे.
तार तार भतवारी रे. बलिहारी तु० ६
❑
श्री पंचपरमेÌी – स्तवन
(सुनयनानंद छंद – कडखो)
इन्द्र धरणेंद्र नरइन्द्र जग ईशके;
होय अनुचर धरैं छत्रत्रय शीशके;
पंचकल्यान लही घातियां जय लये,
गणधरादिक जजे परम हर्षित भये. १
ज्ञान दर्शन जुगल ये अनंते महा,
ध्यान वर शुक्ल सो अनंते सुख लहा;
वीर्ज सो अनंत लहते परमदेवजी;
द्यो प्रभू श्रेष्ठ मंगल हमें सेवजी. २