३४ ][ श्री जिनेन्द्र
भेद षट् द्रव्य स्वरूप त्रय काल जे,
ज्ञान ध्यावत सु निज आतमलाल जे. ८
जीव षट्काय रखपाल समभाव ते,
करम वन दहन लहि परम पद ध्यावते;
वीस वसु मूलगुन धारन रुषिदेवजी;
द्यो गुरु श्रेष्ठ मंगल हमें सेवजी. ९
श्री जिन – स्तवन
(पद्धरी छंद)
सुंदर पवित्र स्थानक बिराज,
तहं डारे भूषन वस्त्र साज;
अंतर बाहिज परिग्रह विडार,
निज वीतराग उर भाव धार. १
धर पद्मासन तप काज सार,
सिद्धन प्रति कीनों नमस्कार;
सिर केश उखारे पंचमुष्ट,
कीनों सु ध्यान पुनि ज्ञानपुष्ट. २
श्रीपतिके केश सो इन्द्र लीन,
क्षीरोदधि पधराये प्रवीन;
प्रभु शान्त रूप सोहत विशाल,
इन्द्रादिक सेवत नमत भाल. ३
शोभित चरित्रकर दिढ अभंग,
लग रही सुरति शिवनारि संग;