स्तवनमाळा ][ ३५
धर पंच महाव्रत गुण-निधान,
पुनि तीन गुपत त्रय जगतमान. ४
सोहत शुद्धातम पाप टार,
वर पंच समिति गह निज विचार,
साधत परमातमपद संवेग,
गहि शील ढाल संतोष तेग. ५
तप कीने नाना विधि अपार,
महिमा – समुद्र करुणा भंडार;
व्रत कर सोहत अति दिपतवान,
बहुविधि प्रकार ॠद्धि महान. ६
उपमा नहिं कोई जिन समान,
भव – तारन तरन कहे वखान;
रत्नत्रय – निधि दानी सुसंत,
निज पर हित उपकारी महंत. ७
वसु करमन जीतन भट सुजान,
त्रिभुवनपति सहित सु चार ज्ञान;
गुणश्रेणीमंडित सुमति भौन,
जिन गुन वरनन बुध धरत कौन. ८
श्री जिन – स्तवन
(छप्पा)
वंदों श्री जिनराय, मन वच काय करोजी;
तुम माता तुम तात, तुम ही परम धनीजी.