स्तवनमाळा ][ ३७
मुनिजनको मन स्वच्छ करन हित, नित प्रति धरत उसंग;
सप्तभंग नय तरल तरंगिन, सोहत है जिम गंग.
सरस्वती जगमाता! तू तो करत सदा शिवसंग. २
मोह महाचल भेद ताप हरि, करत ज्ञान सर्वंग;
लोक शिखर शिव सदन लसत तव, प्रेरित चढत अपंग.
सरस्वती जगमाता! तू तो करत सदा शिवसंग. ३
एक रूप निर अक्षर उपजत, उचरत नेक प्रसंग;
द्वादश भाषामय है विरचत, परचत साम अभंग.
सरस्वती जगमाता! तू तो करत सदा शिवसंग. ४
एक दोय त्रण चार पंच षट् आदि प्रमाण प्रसंग;
बौध आदि मत मान्य खंड करि दो विधि कहत अभंग.
सरस्वती जगमाता! तू तो करत सदा शिवसंग. ५
विषम अविद्या रत ह्वै जगजन होय रहे अरधंग;
चंदकिरण सम होय निरंतर जागृत करत सुचंग.
सरस्वती जगमाता! तू तो करत सदा शिवसंग. ६
भव विष क्षत चित चैतनदायक सुधा अनोपम संग;
मनमथ मदकृत ज्वर रुग भंजन औषधि एक अभंग.
सरस्वती जगमाता! तू तो करत सदा शिवसंग. ७
समयसार निज रूप तिहारो गतमल ज्ञान सुरंग;
तत्त्वारथके ज्ञाता गणधर स्तवन करत नमि अंग.
सरस्वती जगमाता! तू तो करत सदा शिवसंग. ८