५४ ][ श्री जिनेन्द्र
अंतर मंथनसे ज्योत जगे;
ज्ञान — अमृत — रस छलके,
चौगति जीवन फेरा हट जाये,
सेवक शाश्वत सुख मिले पीछे क्या? कृपा करो० ४
श्री जिन – स्तवन
(तमे थोडा थोडा थाव)
तमे रूडा रूडा, तमे रूडा रूडा ध्यावो वीतरागी,
ओ आत्म तमे रूडा रूडा ध्यावो वीतरागी;
लगावी ध्याननी धून बनो त्यागी. ओ आत्म० १
जिनरागी विरागी, सद्भागी सहु बनो,
मोह मायाने झट हणो;
अहा, कर्म केरो केर जाय भागी. ओ आत्म० २
करो सत्धर्मनो चटको ने, विभावोने पटको;
तेथी आतम ज्योत जाय जागी. ओ आत्म० ३
प्रभुनुं मुख सोहे पूनमनो चंद्र मोटो,
चहेरो अजब एवो जेनो नहि जग जोटो;
एवा प्रभुना चरणोनो बनो रागी. ओ आत्म० ४
प्रभुनां दर्शनमां ल्हेरो लेहरावो;
ऊंची ऊंची भावना ए चित्तमां जगावो;
आत्मस्वरूपमां रहे लागी. ओ आत्म० ५