७२ ][ श्री जिनेन्द्र
स्याद्वाद संजुकत अर्थको प्रगट बखानत,
हितकारी तुम वचन श्रवनकरि को नहिं जानत,
दोषरहित ये देव शिरोमणि वक्ता जगगुर,
जो ज्वरसेती मुक्त भयो सो कहत सरल सुर. २९
विन वांछा ए वचन आपके खिरैं कदाचित,
हे नियोग ए कोपि जगतको करत सहज हित;
करै न वांछा इसी चंद्रमा पूरों जलनिधि,
सीतरश्मिकूं पाय उदधि जल बहै स्वयंसिधि. ३०
तेरे गुण गंभीर परम पावन जगमांई,
बहुप्रकार प्रभु हैं अनंत कछु पार न पाई;
तिन गुणानको अंत एक याही विधि दीसै,
ते गुण तुझ ही माहिं औरमें नाहिं जगीसै. ३१
केवल थुति ही नाहिं भतिपूर्वक हम ध्यावत,
सुमरन प्रणमन तथा भजनकर तुम गुण गावत;
चिंतवन पूजन ध्यान नमनकरि नित आराधैं,
को उपावकरि देव सिद्धिफलको हम साधैं. ३२
त्रैलोकी नगराधिदेव नित ज्ञानप्रकाशी,
परमज्योति परमातमशक्ति अनंती भासी;
पुन्य – पापतैं रहित पुन्यके कारण स्वामी,
नमों नमों जगवंद्य अवंद्यक नाथ आकामी. ३३
रस-सुपरस अर गंध रूप नहिं शब्द तिहारे,
इनके विषय विचित्र भेद सब जाननहारे;