७४ ][ श्री जिनेन्द्र
यथा कथंचित् भक्ति रचै विनई जन केई,
तिनकूं श्री जिनदेव मनोवांछित फल देई;
पुनि विशेष जो नमत संतजन तुमको ध्यावै,
सो सुख जस ‘धन जय’ प्रापति ह्वै शिवपद पावै. ४०
श्रावक माणिकचंद सुबुद्धी अर्थ बताया,
सो कवि ‘शांतिदास’ सुगम करि छंद बनाया;
फिरि फिरिक ॠषि रूपचंदने करी प्रेरणा,
भाषा स्तोत्र विषापहारकी पढो भविजना. ४१.
जिन – स्तवन
सकल सुरासुर पूज्य नित, सकलसिद्धि दातार;
जनपद वंदू जोर कर, अशरनजन आधार. १
(चौपाई)
श्री सुखवासमहीकुलधाम, कीरतति हर्षणथल अभिराम;
सरसुतिके रतिमहल महान, जय जुवतीको खेलन थान;
अरुण वरण वंछित वरदाय, जगत पूज्य ऐसे जिन पाय;
दर्शन प्राप्त करैं जो कोय, सब शिवथानक सो जन होय. १
निर्विकार तुम सोमशरीर, श्रवणसुखद वाणी गम्भीर,
तुम आचरण जगतमें सार; सब जीवनको है हितकार;
महानिंद भवमारू देश, तहां तुंग तरुं तुम परमेश,
सघनछांहिमंडित छबि देत, तुम पंडित सेवैं सुखहेत. २
गर्भकूपतैं निकस्यो आज, अब लोचन उघरे जिनराज,
मेरो जन्म सफल भयो अबै, शिवकरण तुम देखे जबै;