७६ ][ श्री जिनेन्द्र
श्री चंद्रप्रभ जिन – स्तवन
(छंद – भुजंगप्रयात)
नमस्ते नमस्ते नमस्ते जिनन्दा,
निवारे भली भांतिक कर्मफन्दा;
सुचन्द्रप्रभु नाथ तो सौ न दूजा;
करों जानिके पादकी जासु पूजा. १
लखै दर्श तेरो महादर्श पावै,
जो पूजै तुम्हैं आपही सो पुजावै. सुचन्द्र० २
जो ध्यावै तुम्है आपने चित्तमांहीं,
तिसै लोक ध्याव कछू फेर नाहीं; सुचन्द्र० ३
गहै पंथ तो सो सुपंथी कहावै,
महापंथसों शुद्ध आपै चलावै; सुचन्द्र० ४
जो गावै तुम्हें ताहि गावें मुनीशा,
जो पावें तुम्हें ताहि पावें गणीशा; सुचन्द्र० ५
प्रभुपाद मांहि भयो जो अनुरागी,
महापट्ट ताको मिलै वीतरागी; सुचन्द्र० ६
प्रभु जो तुम्हें नृत्य करके रिझावै,
रिझावै तिसे शक्र गोदी खिलावै; सुचन्द्र० ७
धरे पादकी रेणु माथे तिहारी,
न लागै तिसे मोहकी द्रष्टि भारी; सुचन्द्र० ८
लहे पक्ष तो जो वो है पक्षधारी,
कहावै सदा सिद्धिको सो विहारी; सुचन्द्र० ९