Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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तुं मेरो आतमराम, नाम तेरो आठो जाम;
करुं हुं तो गुनग्राम, दुःखको हरन है. तुंही०
सीमंधर जिणंद तेरे, दरस परस केरे;
कहेत अमृत मेरे; जीउको ठरन है. तुंही०
श्री सीमंधरनाथस्तवन
(सवैया)
तेरी गति तुंही जाने, मेरे मन तुंही है;
और सर्व भर्म भाव, मोहजाल युंही है....१
ग्यानमें बिचार ठानि, शुद्धि बुद्धि गही है;
आपकी प्रसाद पाई, सुष्ट द्रष्टि लही है....तेरी०
चंद ज्यों चकोर प्रीति, ऐसी रीति सही है;
आदि अंत एक रूप, तोसों होई रही है....तेरी०
ऐ दयाल बहुत बात, कही जात नहीं है;
तारि हो सीमंधरनाथ, गुनविलास वही है....तेरी०
✧ ✧ ✧
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(शांति जिन एक मुज विनतीराग)
सीमंधर जिन वंदीए, समतारस भंडार रे;
दोष सघळा क्षय थया, उपन्या गुण सुखकार रे.....
सीमं०

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सुरघट सुरतरु उपमा, प्रभुने कहो केम छाजेरे;
आत्मिक सुखनी आगळे, चिंतामणि पण लाजेरे...
सीमं०
लोकालोकप्रकाशता, महिमा अपरंपाररे;
तारक वारक चउगति, सत्यस्वरूपाधाररे....
सीमं०
शुद्ध बुद्ध अविनाशी तुं, अविचल नयनानंदरे;
पामी सुरतरु पुण्यथी, सेवे बाउल कोण मंदरे.....
सीमं०
अनुपम प्रभुगुणध्यानथी, निशदिन मनमां राचुं रे;
तुज सेवक जिन ध्यावतां, लाग्युं स्वरूप शुद्ध साचुं रे..
सीमं०
स्तवन
(रागश्री श्रेयांसजिन अंतरजामी)
ऐसा स्वरूप विचारो हंसा, गुरुगम शैली धारीरे,
पुद्गल रूपादिकथी न्यारो, निर्मळ स्फटिक समानोरे;
निज सत्ता त्रिहुं काले अखण्डित, कबहु रहे नहि छानोरे.
ऐसा०
भेदज्ञान सूर उदये जागी, आतमधंधे लागोरे;
स्थिरद्रष्टि सत्ता निज ध्यायी, परपरिणमता त्यागोरे.
ऐसा०

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कर्मबंध रागादिक वारी, शक्ति शुद्ध समारीरे;
झीलो समतागंगाजलमें, पामी ध्रुवकी तारीरे.
ऐसा०
निजगुण रमतो राम भयो जब, आतमराम कहायोरे,
श्री सद्गुरु कहे शोधो घटमां, निजमां निज परखायोरे.
ऐसा०
श्री जिनेन्द्रस्तवन
जागो जोगी अलख स्वरूपी, पूर्णानन्दविलासी;
निजपदमांहि वास तुमारा, ज्ञाताज्ञेय प्रकाशी....
खेलो आतमरे, अवसर आव्यो सारो,
जिनजी तुं मने प्यारो. खेलो०
चिद्घन शुद्ध स्वरूपे सोहे, मुनिजननां मन मोहे;
दिनमणि त्रणभुवनमां तुं छे, पोते पोताने बोहे....
खेलो आतम रे.....२
अंतर धन परखी ले तारुं, सारामां जे सारुं;
तन्मयविश्वासी था तेनो, प्यारामां जे प्यारुं;
खेलो आतम रे.....३
भूली दुनियाना डहापणने, वळजे आतमवाटे;
ऊंघीश नहि तुं अगमपन्थमां, माल छे माथा साटे...
खेलो आतम रे.....४

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हाथे नहीं ते साथे करवुं, अद्भुत एह तमासा;
पाम्या अनंता पामे तेने, ते पदना तुं प्यासा.......
खेलो आतम रे.....५
चिंतामणि निर्धनना हाथे, ते तो कबहु न चडशे;
मानो मनमां जे ते आव्युं, परभव मालूम पडशे.....
खेलो आतम रे.....६
चउटामां मिसरी वेराणी, कीडी कळाथी खावे;
कुंजर तेने ग्रही शके नहि, योग्यताए सहु पावे.......
खेलो आतम रे.....७
जेना माथे सद्गुरु छे, ते जगमें उजियारो,
निज स्वरूपे आत्म उजागर, सद्गुरु तरे ने तारे......
खेलो आतम रे....८
श्री नेमिनाथस्तवन
(श्री श्रेयांस जिन अंतरजामीराग)
नेमि जिनेश्वर दर्शन किया, आतमशक्ति जय पाया;
अवघट घाट ओळंगी हमने, ब्रह्मगुफामें वास किया;
माया ममता सब परहरके, देश हमारा जीत लिया.
नेमि०
दर्शनज्ञानचारित्रे न्हाई, पापपंक सब डार दिया,
कुनयोंका मारग भेदी, धर्म रत्न उपाय लिया.
नेमि०

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मेरा मारग न्यारा सबसें, पण शिवमारग से नहि न्यारा;
वीतरागका वचन प्रमाणे, समजे तो जगकुं प्यारा.
नेमि०
सच्चा कहे जिनवाणी खुल्ला, समजे ज्ञानी मस्ताना;
मस्तानाका मारग मुक्ति, शुं जाणे ते दीवाना.
नेमि०
तीर्थंकरकी वाणी दोरी, पकड चढो मुक्तिमहेले;
मारग सच्चा, साहिब सच्चा, विश्वासा तुं धर दीले.
नेमि०
सत्य सुनाया जे हम पाया, गुरुगमता लेजो ज्ञानी;
समकिती सद्गुरु प्रतापे, बात रहे नहि को छानी.
नेमि०
धन धन जगमां एवा संतो, संगत तेनी बहु सारी;
संतजनो सहु चढते भावे, हुं जाउं तस बलिहारी.
नेमि०
भावपूजानुं स्तवन
(आशावरी)
परम प्रभु घट अंतरमां भावो; गावो ध्यावो वधावो...परम०
पिंडे परमातम वसिया तसू, पूजा शुद्ध रचावो;
समताजलथी प्रक्षालो विभु, तन्मय त्यां थई जावो....परम

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भावदयाचंदनथी अर्चो, सद्गुणपुष्प चढावो;
क्षायिकसमकित धूप करो वळी, ज्ञानदीपक प्रगटावो...परम०
क्षायिकचरणनो स्वस्तिक करीए, अनुभवनैवेद्य धरीए;
आविर्भावे आत्मिकगुणफळ, धरतां मंगळ वरीये...परम०
सामग्री पूजननी पामी, पूजो अंतरयामी;
पूजकपूज्यपणुं प्रगटावी, थावो चिद्घनस्वामी.....परम०
गुणस्थानक ऊंचुं पामीने, ल्यो पूजननो ल्हावो;
परमातमना पूजन अर्थे, मळे न अवसर आवो......परम०
श्री अध्यात्मस्तवन
सुगुण सनेहा स्वामी महेले पधारो,
विनतडी अवधारो, कृपाळु स्वामी महेले पधारो;
शेरीए शेरीए स्वामी फूलडां बिछावुं,
तोरण नवीन रचावुं. कृपाळु०
समताना संगे एम स्वामीजी आव्या,
तत्त्व-रमणतामां फाव्या....कृपाळु०
गुणठाणे चोथे स्वामीजी चडिया,
भ्रांतीना हाथ हेठे पडिया..कृपाळु०
भेदद्रष्टि थई भिन्नता बोधी,
लीधुं सत्य ज घट शोधी.....कृपाळु०

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क्षायिकभावे निज घरने तपासी,
ज्ञानथी कीधुं प्रकाशी......कृपाळु०
क्षपकश्रेणिए महेले चडंता,
क्षायिकलब्धि वरंता.....कृपाळु०
शक्ति व्यक्ति घट अन्तर जागी,
सुख विलसे महाभागी....कृपाळु०
पुद्गल संग निवारी स्वठामे,
तन्मय रूप शुद्ध पामे.....कृपाळु०
आतम-नर नारी-समता संयोग,
भोगवे शाश्वत भोग.....कृपाळु०
मळियो समय लेखे एम ज आवे,
जिनसेवक शिवदावे.....कृपाळु० १०
श्री शीतल जिनस्तवन
(स्नेही संत ए गिरि सेवोए देशी)
श्री शीतलजिन सहजानंदी, थयो मोहनी कर्म निकंदी;
परजायी बुद्धि निवारी, पारिणामिक भाव समारी,
मनोहर मित्र ए प्रभु सेवो, दुनियामां देव न एवो.
मनो०

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वर केवलनाण विभासी, अज्ञान-तिमिर-भर नासी;
ज्यो लोकालोक प्रकाशी, गुणपज्जव वस्तु विलासी.
मनो०
अक्षयस्थिति अव्याबाध, दानादिक लब्धि अगाध;
जेह शाश्वत सुखनो स्वामी, जड इंद्रिय भोग विरामी.
मनो०
जेह देवनो देव कहावे, योगीश्वर जेहने ध्यावे;
जस आणा सुरतरुवेली, मुनि-हृदय आरामे फेली.
मनो०
जेहनी शीतलता संगे, सुख प्रगटे अंगोअंगे;
क्रोधादिक ताप शमावे, आत्म-आनंद स्वभावे.
मनो०
श्री विमल जिनस्तवन
(सकल समता सरलतानोराग)
विमल जिनवर विमल जिनवर, विमल ताहरुं नाम रे;
विमल जिनवर ध्यान धरतां, विमल लहीये ठाम रे.....
प्रभु वि०
विमलज्ञाने तुम्ह शोभे, विमलमति विस्तार रे;
विमलमूर्ति निरखतां प्रभु, पामे भवनो पार रे......
प्रभु वि०

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विमल लेश्या तुज पासे, विमल शुक्लध्यान रे,
विमल चारित्रनो धणी तुं, विमल प्रभु निर्वाण रे....
प्रभु वि०
विमल तेजे तुम्ह शोभे, विमल दरशन तुज रे;
विमल सूरत ताहरी प्रभु, विमल करो हो मुज रे.....
प्रभु वि०
गुण अनंता ताहरा प्रभु, किम कहुं हुं मतिमंद रे;
ॠद्धि शक्ति अनंती छे जिहां, ते आपो शिवसुख-कंद रे...
प्रभु वि०
श्री जिनेन्द्रस्तवन
(निज सुखके सधैयाराग)
सहज स्वरूपी मारो अंतरजामी, परमातम घटरामी,
प्रभु चिन्मय गुणधारी,
निश्चयनयथी शुद्धस्वरूपी, जाणो ए रूपारूपी;
प्रभु चिन्मय०
पर्याय समये समये अनंता, प्रतिप्रदेशे फरंता; प्रभु०
उत्पाद-व्यय-स्थिति त्रण स्वरूपे, समये द्रव्य प्ररूपे; प्रभु०
आनंद आपे भवदुःख कापे, आपोआप प्रतापे; प्रभु०
आत्मिक शुद्धस्वभावनो भोगी; योगीनो पण योगी प्रभु०

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शक्ति अनंती सदानो जे स्वामी, नामी पण ते अनामी; प्रभु०
सुजन स्नेही व्हालो ध्यानेरे आवे, ज्ञानानंद सुख पावे. प्रभु०
प्रभुभजन
(सकल समता सरलतानोराग)
प्रभुने भज तुं प्रभुने भज तुं, सफल कर नरदेहरे;
मोंना माग्या वरसिया छे, मानव भवना मेहरे तुं...प्रभु०
आ देहव्यापी आतमानी झळके रूडी ज्योतरे;
ज्ञानगुण ते हंसनो छे, करे स्व-पर उद्योतरे तुं...प्रभु०
बाहिर भटके जीवडा शुं? करी ले घटमां खोजरे;
रत्न अमुलख मांहि भरियां, देखंता सुख मोजरे तुं...प्रभु०
आतम ते परमातमा छे, प्रभु विभु जगदीशरे;
भिन्नपणुं त्यां कर्मथी छे, कह्युं छे विश्वावीशरे तुं....प्रभु०
अनंत आतम व्यक्तिथी छे, सिद्ध सरखा भाईरे;
ज्ञानानंदी आतमध्याने, भजन स्फुरणा आईरे तुं...प्रभु०
श्री महावीर जिनस्तवन
(विमलाचलना वासी मारा व्हालाए राग)
महावीर प्रभु सुखकारी सदा, तुज पाय नमुं पाय नमुं;
प्रभु आण धरुं शीर ध्यान धरुं, निजभावे रमुं भावे रमुं.
म०

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घातिकर्मनो नाश करीने, पाम्या केवलज्ञान,
आतमसो परमातम जाणी, ध्यायुं शुक्लध्यान. सदा० म०
रत्नत्रयीनी स्थिरता पाम्या, वाम्या भव जंजाळ;
परमातम परमेश्वर परगट, करता मंगलमाळ. सदा० म०
ज्ञानादिक चारे तुज मळियां; गळियां कर्मो आठ;
कारण चार विना नहि कारज, श्री सिद्धांते पाठ. सदा० म०
संप्रति शासन तारुं पामी, पुरुषार्थ करुं आज;
करतां कारण चारे पामी, परमातम पद थाय. सदा० म०
आतम ते परमातम साचो, निर्मल सिद्ध समान;
अंतर-आतम घटमां शोधो, त्रण्य भुवननो भाण. सदा० म०
अध्यात्मभजन
(व्हाला वीरजिनेश्वर वीनतडी अवधारशो रेराग)
साचो अर्न्त स्वामी आतम दिलमां ध्यावजेरे,
अंतर अलख जगावी, निर्भयपद झट पावजेरे. साचो०
सुखनो दरियो गुणथी भरियो; योगी आतमध्याने वरीयो;
प्रभुने अन्तर दिलमां प्रेम थकी पधरावजे रे. साचो०
भक्ति करजे प्रभुनी भावे, निजगुण कर्ता आप स्वभावे;
पोताने तुं क्षायिकभावे समावजेरे. साचो०

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झटपट जंजाळोने त्यागी, सत्यज्ञानथी था तुं रागी;
वीर वीतरागी आतम प्रभुने तुं पावजे रे. साचो०
अध्यात्म भजन
(व्हाला वीरजिनेश्वर विनतडी अवधारजो रेराग)
चेतन चतुराईथी शिवपुर-मारग चालजे रे;
छोडी विषय विकारो, मनडुं निजघर वाळजे रे.
दुनियादारी दूर विसारी, उपयोगे आतमगुणधारी;
क्षायिक भावे तुं कर्म विदारजे रे. चेतन०
घनघाती चउकर्म खपावे, आत्मिक शुद्धस्वभावे भावे;
पोताने तुं पर पर-परिणतिथी वारजे रे. चेतन०
स्थिरता आपस्वरूपे आवे, परमानंद प्रेमे त्यां पावे;
चिदानंदे ध्यान धरीने आतम तारजे रे. चेतन०
श्री जिनवाणीस्तवन
तुम्हे जोज्यो जोज्यो रे, वाणीने प्रकाशे तुम्हे०
ऊठे छे अखंड ध्वनि जोजने संभळाय;
नर तिरिय देव आपणी, सहु भाषा समजी जाय. तुम्हे०
द्रव्यादिक देखी करीने, जाय निक्षेपेजुत्त;
भंग तणी रचना घणी, कांई जाणे सहु अद्भुत. तुम्हे०

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पण सुधा ने इक्षुवारि, हारी जाये सर्व;
पाखंडी जन सांभळीने, मूकी दिये गर्व. तुम्हे०
अनंत रहस्ये अलंकरी, सीमंधर जिन वाणी;
संशय छेदे मन तणा, प्रभु केवलज्ञाने जाणी. तुम्हे०
वाणी जे नर सांभळे ते, जाणे द्रव्य ने भाव;
निश्चय ने विवहार जाणे, जाणे निज पर भाव. तुम्हे०
साध्य साधन भेद जाणे, ज्ञान ने रमणभाव;
हेय ज्ञेय उपादेय जाणे, तत्त्वातत्त्व विचार. तुम्हे०
नरक स्वर्ग अपवर्ग जाणे, थिर व्यय ने उत्पाद;
राग द्वेष अनुबंध जाणे, उत्सर्ग ने अपवाद. तुम्हे०
निज स्वरूपने ओळखीने, अवलंबे स्वरूप;
चिदानंदघन आतम ते, थाय जिन गुण भूप. तुम्हे०
वाणीथी जिन उत्तम केरा, अवलंबे पद जेह;
नियमा ते परभाव तजीने पामे शिवपुर तेह. तुम्हे०
❑ ❑ ❑
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(रामचंद्रने बाग चंपो मोरी श्योरीराग)
सीमंधरदेव दयाळ, भवोदधि पार करोजी;
तुं प्रभु दीनदयाल, तारक बिरुद धरोजी.
तुम सम वैद्य न कोय, जानो मरम खरोरी;
जावे जस विध रोग, तैसोही ग्यान धरोरी.

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भ्रंति ने चार कषाय, रोग असाध्य कह्योरी;
मदन महा दुःख देन, सब जग व्याप रह्योरी.
तूं प्रभु पूरण वैद, त्रिभुवन जाच लह्योरी;
किरपा करो जगनाथ, सब अवकाश थयोरी.
वचन पीयूष अनुप, मुज मनमांहे धरोरी;
दीजो पथ्य प्रदान, आतम दाह हरोरी.
सम्यक् दरसण ग्यान, क्षमा मृदु सरल भलोरी;
तोष अवेद अभंग, तो सहु रोग दल्योरी.
पथ्योदन जिनभक्ति, आतमराम रम्योरी;
तूठो सीमंधर जिनेश, अरिदल क्रूर दम्योरी.
❉ ❉ ❉
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(स्वामी सुजात सुहायाराग)
सीमंधरनाथ निरागी निःकामी निःसनेही शिवगामी रे....
स्वामी स्वारथकारी.
रोषे करीने नवि रिसाई, तुं निःसनेही गुण गाई रे.....
स्वामी०
बंध उदित तीर्थ नाम भोगवतो,
आतमरस जोगवतो रे; स्वामी०

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निःकर्मा थावाने काजे;
बेसी समोसरणे गाजे रे. स्वामी०
तो हुं शुं करी तुज रिझावुं,
एक उपाय चित्त लावुं रे; स्वामी०
ध्यान तमारुं नित्ये धरशुं,
अमे पण स्वारथ करशुं रे. स्वामी०
यावत स्वारथ पूरो पावुं,
तावत तुजने ध्याउं रे; स्वामी०
भूप सरखी प्रजा जाणो,
लोक वात मन आणो रे. स्वामी०
न्याय-मारगमां सीमंधरनाथे,
निरुपाधिक गुण छाजे रे; स्वामी०
आतमराम प्रभु सेवा पामी,
लहो लक्ष्मी शिव कामी रे. स्वामी०
श्री शांतिजिनस्तवन
(दयालरायराग)
सोळमा शांति जिनश्वर हो राज,
चक्री पंचम एह हो, मनमोहन स्वामी.
12

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विनवुं हुं शिरनामीने हो राज,
तुं मुज अंतरजामी हो....मन०
उपकारी त्रिहुं लोकना हो राज,
जिम जग रवि शशि मेह हो....मन०
माहरे तुम शुं प्रीतडी हो राज,
तुं तो सदा वीतराग हो.....मन०
भिन्न स्वभाव ते किम मिले हो राज,
इम नहि प्रीतिनो लाग हो.....मन०
हुं मोहे मुंझ्यो घणुं हो राज,
तुं निरमोही भंदत हो...मन०
तुं समता सुख सागरु हो राज,
हुं प्रभु ममतावंत हो......मन०
हुं परभावे राचियो हो राज,
तुं चिदानंद स्वरूप हो....मन०
अस्थिरता मुजने घणी हो राज,
तुं शीतळ जगभूप हो....मन०
इम बिहु भिन्नपणा थकी हो राज,
किम एक तान मिलाय हो.....मन०
स्वामी सेवक अंतरे हो राज,
किम लहुं स्वामी पसाय हो.....मन०

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पण भक्ति निर्मळ करी हो राज,
अहनिशि करुं तुम सेव हो. मन०
आश्रित जाणी संग्रहो हो राज,
पार उतारो देव हो....मन०
तुम नाथे हुं सनाथ छुं हो राज,
धन्य गणुं अवतार हो....मन०
पुरुषोत्तम प्रभुना दासने हो राज,
आपो शिवसुख सार हो....मन०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
साहिबा सीमंधरजिनजी नाथ, अनाथ तणो धणी रे लो,
साहिबा वस्तुस्वभाव प्रकाशक, भासक दिनमणी रे लो;
साहिबा धर्म अनंता सुख देतां परगट थयो रे लो,
साहिबा वस्तु सरव पर्यवस भाखे जिनप्रभु रे लो.
साहिबा युगपदभावी ने क्रमभावी पर्यव कह्या रे लो,
साहिबा ज्ञानादिक युगपदभावीपणे संग्रह्या रे लो;
साहिबा नव-जीर्णादिक थाय ते क्रमभावी सुणो रे लो,
साहिबा शब्द-अरथथी ते पण द्विविध परे मुणो रे लो.
साहिबा सर्व अतीत अनागत सांप्रत काळथी रे लो,
साहिबा इत्यादिक निज बुद्धे करो संभाळथी रे लो;

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साहिबा समकाळे इम धर्म अनंता पामिये रे लो,
साहिबा ते सवि परगट भावथी तुम्ह शिर नामिये रे लो.
साहिबा षट द्रव्यना जे धर्म अनंता ते सवे रे लो,
साहिबा नहि परछन्न स्वभाव अभाव मुज संभवे रे लो;
साहिबा पुष्टालंबन तुंहि प्रगटपणे पामियो रे लो,
साहिबा हुं पण हवे तुज रीते थवाने कामियो रे लो.
साहिबा सीमंधरनाथ परे हस्तीमल्ल थई झूझशुं रे लो,
साहिबा जेम भवि जीवने बुझव्या तिम अमे बूझशुं रे लो;
साहिबा तस परे उत्तम शिष्यने महेरथी निरखिये रे लो,
साहिबा तुम सेवक कहे तो अम्हे चित्तमां हरखिये रे लो.
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(मुजरो मारो ल्योने राजराग)
तुं पारंगत तुं परमेसर, वाला मारा तुं परमारथवेदी;
तुं परमातम तुं पुरुषोत्तम, तुं अछेदी अवेदी.
ताहरी द्रष्टि उपशम धारी रे...जगना सोहनीया.
योगी अयोगी भोगी अभोगी, वाला मारा
तुंही ज कामी अकामी;
तुंही अनाथ नाथ सहु जगनो,
आतम-संपद-रामी....ताहरी.

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एक असंख्य अनंत अनूचर वाला मारा
अकळ सकळ अविनाशी;
अरस अवर्ण अगंध अफरसी,
तुंहि अपासि अनाशी...ताहरी.
मुख पंकज भमरी परे अमरी, वाला मारा
तुंही सदा ब्रह्मचारी;
समवसरण लीला अधिकारी,
तुंही ज संयमधारी...ताहरी.
सत्यकी नंदन अचरिज एही, वाला मारा
करणीमांहि न आवे;
सीमंधरजिनजी वयण-सुधारस,
पीवे तेहि ज पामे...ताहरी.
श्री नमिजिनस्तवन
(धर्म जिनेश्वरराग)
श्री नमिस्वामी रे जागी शुभ चेतना,
राग धर्यो तुम साथ.....जिणंदजी.
समकित पामी रे सार दशा धरी,
दीठो शिवपुर साथ....जिणंदजी,
नमिजिन भास पोता सरीखो.

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आतम जाणुं रे निरुपाधिकपणुं,
स्वभाविक गुण खाण....जिणंदजी.
छे असंख्या रे प्रदेश निरावरणा,
लोकाकाश प्रमाण....जिणंदजी.....नमि०
निज प्रदेशे रे एकेक छे,
गुण अनंत निवास......जिणंदजी.
परमानंदी रे शिवसुख संपन्न,
निरामय सुविलास..जिणंदजी.....नमि०
निर्विकारी रे निराधारी ए,
द्रव्यकर्म विनिर्मुक्त......जिणंदजी.
भावकर्मथी रे त्यक्त निरंजन,
नोकर्म हीणो उक्त..जिणंदजी.....नमि०
दर्शन नाणी रे केवळ भावथी,
अरूपी अविनाश.....जिणंदजी.
निर्वरणी रे निर्ग्रंथी निर्माय,
निर्लेश नहि फरस..जिणंदजी.....नमि०
संयोगी रे उपाधिक सवे,
कनक-उपलने न्याय.....जिणंदजी.
ध्यानानळनी रे ज्वाळाए करी,
पृथक् कर्ये सुख थाय...जिणंदजी.....नमि०