Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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जिम ए बिहुंनी प्रीतडी, तुमे करी आपी थिर भावे रे;
तिम मुज अनुभव मित्तसुं, करी आपो मेळ स्वभावे रे..
बलि०
तुज शासन जाण्या पछी, तेहशुं मुज प्रीत छे झाजीरे;
पण ते कहे ममता तजो, तेणे नवि आवे छे बाजीरे...
बलि०
काल अनादि संबंधिनी, ममता ते केड न मूके रे;
रिसाये अनुभव तदा, पण चित्तथी हित नवि चूके रे...
बलि०
एहवा मित्रशुं रूसणुं, ए तो मुज मन लागे माठुं रे;
तिम कीजे ममता परी, जिम छांडुं चित्त करी काठुं रे...
बलि०
चरण धर्म नृप तुम वसें, तस कन्या समता रूडी रे;
श्रेयांससुततें मेळवो, जिम ममता जाये ऊडी रे...
बलि०
साहिबे मानी वीनती, मिल्यो अनुभव मुज अंतरंगे रे;
ओच्छव रंग वधामणां, हुआ सुजस महोदय संग रे...
बलि०
श्री पद्मप्रभ जिनस्तवन
श्री पद्मप्रभ कृपाल, त्रिभुवन सुखकरो हो लाल, त्रिभुवन०
जग उद्धरवा हेत, इंहां तुं अवतर्यो हो लाल; इहां०

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कर करुणा जगनाथ, कहुं हुं केटलुं हो लाल, कहुं०
भवभवनो भय टाळ, मागुं छुं एटलुं हो लाल. मा०
देतां दान दयाल के, कोसर नहीं किसी हो लाल; को०
जेहवुं मुज शुद्ध स्वरूप, ते आपो उल्लसी हो लाल; ते०
बेसी परषदा मांहि, देखाडी गुण-तटी हो लाल, दे०
लेहवा तेह ज रूप, थई मन चटपटी हो लाल. थ०
जाण्या विण गयो काल, अनंतो भवभमी हो लाल. अ०
सुणी निरंजन देव, न जाये एक घडी हो लाल; न०
उतावळ मनमांहे, थाये छे अति घणी हो लाल, था०
पण नवि चाले जोर, वडाश्युं आवी बनी हो लाल. व०
कह्युं तुमे हित आणी, अमे नवि जाणता हो लाल, अ०
तो आपो जगबंधु, रखे तुम ताणता हो लाल; र०
जाणुं छुं मुनिनाथ, उपादान अम तणो हो लाल, उ०
समरे सीझे काज के, निमित्त ते तुझ तणो हो लाल. नि०
ध्यातां नमतां तुजने, आतम अम तणो हो लाल, आ०
कर्म रहित जे थाय, पसाय ते तम तणो हो लाल; प०
भक्तभावे प्रभु पाय, सेवो मनसा करी हो लाल, से०
पाम्यो परमाणंद के, शिव लक्ष्मी वरी हो लाल. के०
श्री श्रेयांसनाथ जिनेश्वरस्तवन
(दीठो सुविधी जिणंद समाधि रस भर्योए देशी)
श्री श्रेयांसजिणंद घना-घन गहगह्यो रे; घना०
वृक्ष अशोकनी छांय सभर छाही रह्यो रे; सभर०

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भामंडळनी झलक, झबुके वीजळी रे, झबुके०
उन्नत आठ भूमि इन्द्र धनुष शोभा मिली रे. धनु०
देवदुंदुभिनो नाद, गंभीर गाजे घणुं रे, गं०
भाविक जीवनां नाटक, मोर क्रीडा भणुं रे; मोर०
चामर केरी हार, चलंती बगतती रे, च०
देशना वचन सुधारस, वरसे जिनपति रे. व०
समकीति चातकवृंद, तृप्ति पामे तिहां रे, तृ०
सकळ कषाय दावानळ, शांत होये जिहां रे; शा०
जिनचित्तवृत्ति सुभूमि, त्रेहाळी थई रही रे, त्रे०
तेणे रोमांच अंकुर, वती काया लही रे. वती०
श्रमणकृषीवल सज्ज, होये तव उज्जमी रे, हो०
गुणवंत जन मन-क्षेत्र, समारे संयमी रे; समा०
करता बीजाधान, सुधान निपावता रे, सुधा०
जेणे जगना लोक, रहे सहु जीवता रे. रहे०
गणधरगिरितट संगी, थई सूत्र गूंथना रे, थई०
एह नदी प्रवाहे, होये सहु पावना रे; होये०
एहि ज मोटो आधार, विषम काळे लह्यो रे, वि०
श्री जिनचरणनो दास, कहे में सद्ह्यो रे. क०
10

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श्री अजित जिनस्तवन
(म्हारो मुजरो लोने राज, साहेब शांति सलूणाए देशी)
अजित जिणेसर चरणनी सेवा, हेवा ए हुं हळियो;
कहिये अणचाख्यो पण अनुभव, रसनो टाणो मळियो,
प्रभुजी महेर करीने आज, काज हमारां सारो.
मुकाव्यो पण हुं नहि मूकुं, चूकुं ए नवि टाणो;
भक्ति-भाव ऊठ्यो जे अंतर, ते किम रहे शरमाणो.....
प्रभुजी०
लोचन शांत सुधारस सुभगा, मुख उपशांत प्रसन्न;
योग मुद्रा आतमरामी, अतिशयनो अति घन्न.....
प्रभुजी०
पिंड पदस्थ रूपस्थे लीनो, चरण-कमळ तुज ग्रहीयां;
भ्रमर परे रस स्वाद चखावो, विरसो कां करो महीयां...
प्रभुजी०
बाळ काळमां वार अनंती, सामग्रीए नवि जाग्यो;
यौवन काळे ते रस चाख्यो, तुं समरथ प्रभु माग्यो....
प्रभुजी०
तुं अनुभव-रस देवा समरथ, हुं पण अरथी तेहनो;
चित्त वित्त ने पात्र संबंधे अजर रह्यो हवे केहनो....
प्रभुजी०

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प्रभुनी महेरे ते रस चाख्यो, अंतरंग सुख पाम्यो;
भक्तिथी सेवक एम भावे, हुओ मुज मन कामो....
प्रभु०
श्री जिनेश्वरस्तवन
(देव तुज सिद्धांत दीठेए देशी)
सकल समता सरलतानो, तुंही अनोपम कंद रे,
तुंही कृपारस कनककुंभो, तुंही जिणंद मुणिंद रे....
प्रभु तुंही, तुंही, तुंही, तुंही, तुंही धरतां ध्यान रे;
तुज स्वरूपी जे थया तेणे, लह्युं ताहरुं तान रे....प्रभु०
तुंही अलगो भव थकी, पण भविक ताहरे नाम रे;
पार भवनो तेह पामे, एह अचरीज ठाम रे......प्रभु०
जन्म पावन आज माहरो, नीरखीयो तुज नूर रे;
भवोभव अनुमोदनाजी, हुआ आप हजूर रे....प्रभु०
एह माहरे अखय आतम, असंख्यात प्रदेश रे;
ताहरा गुण छे अनंता, किम करुं तास निवेश रे....प्रभु०
एक एक प्रदेश ताहरे, गुण अनंततानो वास रे;
एम कही तुज सहज मिलत, हुवे ज्ञानप्रकाश रे....प्रभु०
ध्यान ध्याता ध्येय एक-भाव होये एम रे;
एम करतां सेव्यसेवक भाव होये क्षेम रे...प्रभु०

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एक सेवा ताहरी जो, होय अचल स्वभाव रे;
ज्ञान निर्मळ शोभित प्रभुता, होय आनंद जमाव रे..प्रभु०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(अजित जिन तारजोराग)
निरुपाधिकता ताहरे रे, प्रभु रमणता ताहरे अनंत;
व्याप्य-व्यापता शुद्धता रे, सदा शुभ गुण विलसंत.....
सीमंधरजिन तारज्यो रे, तारज्यो दीनदयाळ; सीमंधर०
सेवक करो निहाल सीमंधर, ताहरो छे विसवास. सीमंधर०
तुं मोटो महाराज सीमंधर० तुं जीवजीवन आधार;
परमगुरु तारज्यो रे; उतारो भवपार. सीमंधर०
द्रव्य रहित ॠद्धिवंत छो रे, प्रभु विकसित वीर्य अशोभ;
विगत कषाय वैरी हण्यो रे, अभिरामी ज्योति अलोभ,
सीमंधर०
गुरु नहीं त्रिभुवन गुरु रे, तारक देवाधिदेव;
कर्ता भोक्ता निजतणो रे, सहज आणंद निमेव.
सीमंधर०
अनंत अक्षय अध्यातमी रे, प्रभु अशरीरी अनाहार;
सर्वशक्ति निरावर्णता रे, अतुल द्युति अनाकार.
सीमंधर०

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निरागी निरामयी रे, असंगी तुं द्रव्यनय एक;
एक समयमां ताहरे रे; गुणपर्याय अनेक.
सीमंधर०
अनंत चतुष्टय सांभळी रे, रुचि उपजी सुखकंद;
पुष्ट कारण जिन तुं लही रे, साधक साध्य अमंद.
सीमंधर०
पुष्टालंबन आदरी रे; चेतन करो गुणग्राम;
परमानंद स्वरूपथी रे; लहश्यो समाधि सुठाम.
सीमंधर०
सुख सागर सत्ता रसी रे, त्रिभुवन गुरु अधिराज;
सेवक निज पद अरथियो रे, ध्यावो एह महाराज.
सीमंधर०
आरोपति सुख भ्रम टळे रे, पूज्य ने ध्यान प्रभाव;
अष्ट करम दळ छोडीने रे, भोगवे शुद्ध स्वभाव.
सीमंधर०
अध्यातम रूपी भज्यो रे, गण्यो नहीं काज अकाज;
कृपा करी प्रभु दीजिये रे, मोक्षलक्ष्मी पद राज.
सीमंधर १०

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श्री विमलनाथ जिनस्तवन
(ॠषभजिणंद शुं प्रीतडीराग)
विमल विमल गुण ताहरा, कहवाये हो किम एकण जीह के
जगजंतु सन्निपणे, तसु जीवित हों असंख्याता दिह....
विमल वि०
सायर श्याही संभवे, सवि वसुधा हो कागद उपमान के
तरु गण लेखण कीजिये, न लिखाये हो तुज भासन मान...
विमल वि०
लिखन कथन अभिलाप्य छे, अनंतगुण हो नभिलाप्य पयथ्थ के
केवलनाण अनंतगुणो कहेवाने हो कुण होय समर्थ...
विमल वि०
रूपी अरूपी द्रव्यना, त्रिहुं काळना हो पज्जव समुदाय के
परणामिकताए परिणमे, तुम ग्यानमां हो समकाळ समाय...
विमल वि०
केवळदंसण तिम वळी, गुण बीजो हो ग्राहक सामान्य के
करतां एकपणा थकी, उपयोगे हो एक समयमां मान्य...
विमल वि०
सुरगुणसुख पिंडित करी, कोई वर्गित हो करे वार अनंत के
तुम गुण अव्याबाधने, अनंतमें हो नवि भाग आवंत....
विमल वि०

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द्रव्य साधर्मे माहरी, सहु सत्ता हो भासन परतीत के
फटक संयोगे सामळो, निज रूपे हो उज्ज्वळ सुपवित्त.....
विमल वि०
शांत भावे जिन सेवना, नित कीजे हो जिम प्रगटे तेह के
सहजानंदी चेतना, गुणी गुणमां हो रमे सादि अछेह.
विमल वि०
✤ ✤ ✤
श्री नेमिनाथस्तवन
(कडखानीदेशी)
सकळ गुणगण नेमजिणंद तुम्ह दरिशने,
आतमाराम सुख सहज पावे;
सबळ संवेगी निर्वेदी अनुकंपतो,
शुद्ध शरधान श्रेणी मचावे.
चरण-गयवर चढे मोहरिपुसें लडे,
ग्यान-परधान सब राह बतावे;
धैर्य वर वीर्य रणथंभ रोपि प्रबळ,
परम वैराग्य सन्नाह बनावे. स०
आण अरिहंतनी ढाल आगळ धरे,
ध्यान एक तान समसेर लावे;
हास्य रति अरति भय शोग दुगंछ खट,
झपट दे मदन अरि दूर हटावे. स०
१. बखतर.

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मन वचन काय निरमाय बंदुक भरी,
सुमति और गुपति गोली चलावे;
मारी मोहमल्ल सुत राग और रोषकुं,
जगतमां जीत-वाजां बजावे. स०
मोहने क्षय करे विजयलक्ष्मी वरे,
अजर अचळ अमर नयरे सिधावे;
श्री नेमनाथ प्रभु चरणकज सेवता,
नित्य आणंद जिन सेवक पावे. स०
श्री शांतिनाथ जिनस्तवन
(दीठां लोयण आजराग)
शांतिनाथ सोहामणो रे, सोळमो ए जिनराय;
शांति करो भवचक्रनी रे, चक्रधर कहेवाय.....
मुनीसर तुं जगजीवन सार.
भवोदधि मथतां में लह्यो रे; अमूलख रत्न उदार;
लक्ष्मी पामी सायर मथी रे, जिम हर्ष मुरार....
मुनीसर०
रजनी अटतां थकां रे, पूर्ण मासे पूर्णचंद;
तिम में साहिब पामियो रे, भवमां नयणानंद....
मुनीसर०

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भोजन करतां अनुदिने रे, बटु लहे घृतपूर;
तिम मुजने तुंहि मिल्यो रे, आतम रूप सनूर.....
मुनीसर०
योगीसर जोतां थकां रे, समरे योग सुजाण;
तुज आतम योग दर्शने रे, प्रगटे सिद्ध स्वरूप....
मुनीसर०
अचिरानंदन तुं ज्यो रे, जय जय तुं जगनाथ;
आतम लक्ष्मी मुज घणी रे, जो तुं चढीयो हाथ....
मुनीसर०
श्री पद्मप्रभ जिनस्तवन
(दीठां लोयण आजराग)
अंतरजामी प्रभु माहरा रे, पदमप्रभु वीतराग;
नयण ठरे मुख पेखतां रे, में धर्यो तुजथी राग.....
व्हाला मारा पदमप्रभु जिनराज.
गुणसत्ताधर ओळखे रे, ते गुणगणनो जाण;
अवगुण छांडीने गुण स्तवे रे, ते जस जगत प्रमाण..
व्हाला०
गुण थकी रंग ऊपनो रे, जिम चातक मन मेह;
तेल बिंदु जिम विस्तरे रे, तिम तिम तुजशुं नेह...
व्हाला०

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सुर नर इंद्र मुनिवरा रे, अहनिश धरे तुज ध्यान;
साधक वधता पुरुषार्थथी रे, गावे जिनगुणगान.....
व्हाला०
चरणकमलनी चाकरी रे, अविहड धरुं रे नेह;
पदमप्रभु जिन साहिबा रे, विवेकथी वधती रेह....
व्हाला०
❋ ❋ ❋
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(दीठां लोयण आजराग)
सीमंधर जिणंद शुभ ध्यानथीजी, सद्हणा शुचि भोग;
तेहथी नाण चरण गुणाजी, विकसें थिर त्रिक जोग......
गुणवंता सुमन जन, ध्यावो जिन जगदीश.
भमतां भवकंतारमांजी, गिरी शिरोपल परं जीय
अनाभोगे लहुकम्म करीजी, भेदे ग्रंथि भवबीज....
गुण०
क्षिण क्षिण शुद्ध थतो थकोजी, अंतर करण पईठ,
कर्म सुभट अरि जीतीनेजी, विघटेरे मिथ्या अनीठ....
गुण०
ज्ञानादिक समकित लहीजी, तुज सुपसायरे नाथ,
तव स्तवना विषे जोग्यताजी, होये ते जीव सनाथ......
गुण०

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अमल अखंड अलिप्तताजी, स्वरूप रमण अविनासी,
वासव सुर नर मुनिवरजी, आजीवित सुप्रयासी......
गुण०
द्रव्य स्तवना वचनादिकेजी, भावथी तन्मय सार;
गुण स्तवना प्रतिदिन करेजी, तदपी न पामेरे पार.......
गुण०
साधक सिद्धता हेतुनेजी, अवलंबे रे मतिवंत;
भेद मिटे प्रगटे महाजी, आतमलक्ष्मी अनंत......
गुण०
जिनप्रतिमामाहात्म्य
(दोहा)
जिनप्रतिमा जिनसरखी, नमै बनारसि ताहि,
जाकी भक्ति प्रभावसौं, कीनौ ग्रन्थ निवाहि.
(सवैया इकतीसा)
जाके मुख दरससौं भगतके नैननिकौं,
थिरताकी बानी बढै चंचलता बिनसी;
मुद्रा देखि केवलीकी मुद्रा याद आवै जहां,
जाके आगै इंद्रकी विभूति दीसै तिनसी.

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जाकौ जस जपत प्रकाश जगै हिरदैमें,
सोई सुद्धमति होई हुती जु मलिनसी;
कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी,
सोहै जिनकी छबि सुविद्यमान जिनसी.
(जिनमूर्ति पूजकोंकी प्रशंसा)
जाके उर अंतर सुद्रिष्टिकी लहर लसी,
बिनसी मिथ्यात मोह-निद्राकी ममारखी;
सैली जिनशासनकी फैली जाकै घट भयौ,
गरबकौ त्यागी षट-दरबकौ पारखी.
आगमकै अच्छर परे हैं जाके श्रवनमैं,
हिरदै-भंडारमैं समानी वानी आरखी;
कहत बनारसी अलप भव थिति जाकी,
सोई जिन प्रतिमा प्रवांनै जिन सारखी.
श्री जिनेन्द्रस्तवन
(कडखानी देशी)
आज जिनराज मुज काज सिद्धां सवे,
वीनती माहरी चित्त धारी;
मार्ग जो में लह्यो तुज कृपारस थकी,
तो हुई सम्पदा प्रगट सारी. आज०
‘कुमति मलिनसी ऐसा भी पाठ है।

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वेगळो मत हुजे देव! मुझ मन थकी,
कमलना वन थकी जिम परागो;
चमकपाषाण जिम लोहने खेंचशे,
मुक्तिने सहेज तुझ भक्तिरागो. आज०
तुं वसे जो प्रभो! हर्षभर हीयडले;
तो सकल पापना बन्ध तूटे;
ऊगते गगन सूरय तणे मण्डले,
दह दिशि जिम तिमिरपडल फूटे. आज०
सींचजे तूं सदा विपुलकरुणारसे,
मुझ मने शुद्धमतिकल्पवेली;
नाणदंसणकुसुम चरणवरमंजरी,
मुक्तिफल आपशे ते अकेली. आज०
लोकसन्ना थकी लोक बहु वाउलो,
राउलो दास ते सवि उवेखे;
एक तुझ आणसुं जेह राता रहे,
तेहने एह निज मित्र देखे. आज०
आण जिनभाण! तुझ एक हुं शिर धरुं,
अवरनी वाणी नवि काने सुणिए;
सर्वदर्शन तणुं मूल तुज शासनं,
तेणे ते एक सुविवेक थुणिए. आज०

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तुझ वचनराग सुखसागरे हुं गणुं,
सकलसुरमनुजसुख एक बिंदु;
सार करजो सदा देव! सेवक तणी,
तूं सुमतिकमलिनीवनदिणिंदु. आज०
ज्ञानयोगे धरी तृप्ति नवि लाजिये,
गाजिये एक तुझ वचनरागे;
शक्ति उल्लास अधिको हुसे तुझ थकी,
तू सदा सकलसुखहेत जागे. आज०
पूर्णानंदघन प्रभु
(रागधन्याश्री)
प्रभु मेरे! तूं सब वाते पूरा.....प्रभु मेरे.....
परकी आश कहा करे प्रीतम! ए किण वाते अधूरा..
प्रभु०
परवश वसत लहत परतक्ष दुःख, सबही बासे सनूरा;
निज घर आप संभार संपदा, मत मन होय सनूरा....
प्रभु०
परसंग त्याग लाग निज रंगे, आनंदवेली अंकूरा;
निज अनुभव रस लागे मीठा, ज्युं घेवरमें छूरा.....
प्रभु०

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अपने ख्याल पलकमें खेले, करे शत्रुका चूरा;
सहजानंद अचल सुख पावे, धूरे जग जीव नूरा.....
प्रभु०
श्री जिनस्तवन
(रागसामेरी)
मेरे प्रभुसुं प्रगट्यो पूरन राग....मेरे प्रभुसुं......
जिन-गुन-चंद-किरनसुं उमग्यो, सहज समुद्र अथाग...
मेरे०
ध्याता ध्येय भये दोउ एकहु, मिट्यो भेदको भाग,
फूल बिदारी छले जब सरिता, तब नहि रहत तडाग.
मेरे०
पूरन मन सब पूरन दीसे, नहि दुविधाको लाग;
पाऊं चलत पनही जो पहिरे, नहि तस कंटक लाग.....
मेरे०
भयो प्रेम लोकोत्तर, त्रुटो लोक बंधको ताग;
कहो कोउ कछु हमको न रुचे, छूटि एक वीतराग....
मेरे०
वासत हे जिनगुन मुझ दिलकुं, जैसो सुरतरु बाग;
ओर वासना लगें न तातें, संत कहे तूं वडभाग.....
मेरे०

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श्री जिनस्तवन
(प्रभु दर्शनथी परमानंद)
आज आनंद भयो, प्रभुको दर्शन लह्यो,
रोमरोम शीतल भयो, प्रभु चित्त आये है. आज०
मन हुं ते धार्या तोहे, चलके आयो मन मोहे;
चरणकमल तेरो, मनमें ठहरायो है. आज०
अकल अरूपी तूंही, अकल अमूरति योही;
निरख निरख तेरो, सुमतिशुं मिलायो है. आज०
सुमति स्वरूप तेरो; रंग भयो एक अनेरो;
वाई रंग आत्म प्रदेशे, सेवक रंगायो है. आज०
श्री जिनस्तवन
ज्ञानादिक गुण तेरो, अनंत अपार अनेरो;
वाही कीरत सुन मेरो, चित्तहु गुन गायो है. ज्ञाना०
तेरो ग्यान तेरो ध्यान, तेरो नाम मेरो प्राण;
कारण कारज सिद्धो; ध्याता ध्येय ठहरायो है. ज्ञाना०
छूट गयो भ्रम मेरो, दर्शन पायो में तेरो;
चरण-कमल तेरो, सेवक रंगायो है. ज्ञाना०

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श्री नेमिनाथ जिनस्तवन
(तारी अजब शी जोगनी मुद्राराग)
श्री नेमिनाथ जिणंद वखाणुं, सिद्ध स्वरूपी जाणुं;
आतम ठाणुं आत्म प्रमाणुं, आतमपद पहिचाणुं;
प्रभु मारा आतम शोधी रे, प्रभु मारा जोग निरोधी रे.
आतम कर्ता आतम करणी, तूं आतमपद धरणी;
आतम कर्ता आतम हरणी, तूं शिव साधन वरणी...प्र०
तूंही शंकर तूंही जगदीश्वर, तूंही आतमरामी;
तूं निष्कामी तूं गुणधामी, तूंही परमपद पामी......प्र०
परमपुरुष परमेश्वर तूंही, परमातम परमाणु;
तुं परमारथ परम पदारथ परमदेव परधान...प्र०
निश्चय नेमि निरंजन परखी, निरंजनता गहीये;
निर-अंजन निरंजन परसी, निरंजन पद लहीये......प्र०
एहवा नेमि निरंजन देवा, सुखकारण नितमेवा;
श्री जिनराज प्रभुनी सेवा, शिवपद दानसुं हेवा.....प्र०
श्री पार्श्वनाथ जिनस्तवन
(स्वामी सुजात सुहायाराग)
वामानंदन पासजिणंदा, मुज मनकमळ दिणंदा रे...
शम सुरतरु कंदा.
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भीम भवोदधि तरणा तरंडा, जेर कर्या त्रिकंदडा रे....
प्रभु नहि व्रीडा रे.
क्रोध मान माया ने लोभा, करी घात थया थीर थोभा रे.....
लहि जगमांहि शोभा.
निज गुण भोगी कर्म वियोगी, आतम अनुभव योगी रे....
नहि पुद्गल रोगी.
मन-वच-तन त्रिक योगने रुंधी, सिद्ध विलासने साधी रे....
टाळी सकळ उपाधी.
यथाख्यात-चारित्र गुण लीणो, केवळ संपद पीनो रे....
योगीश नगीनो.
सिद्ध वधू अरिहंत निरंजन, परमेश्वर गत लंछन रे....
साहिब सहु सज्जन.
श्री सीमंधरनाथस्तवन
(सवैया)
तुंही एक प्यारो प्रान, तिहारो ही ज्ञान ध्यान;
सब गुनको निधान, तेरो ही शरन है.
तुम हो अनाथनाथ, मोक्षको चलावे साथ;
जिने सुख कीनो हाथ, सुखको करन है. तुंही०
१. बिहामणो २. वहाण. ३. त्रण दंड. ४. लाज.