Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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परमपवित्र असंख्यप्रदेशी, करुणासिंधु अचिंत्य अभेषी;
जगतसूर निर्मल उपयोगी, भद्ररूप भगवन्त अभोगी. ५७
भानोपम भरता भवनासी, द्वन्दविदारण बोधविलासी;
कौतुकनिधि कुशली कल्याणी, गुरु गुसाँई गुणमय ज्ञानी. ५८
निरातंक निरवैर निरासी, मेधातीत मोक्षपदवासी;
महाविचित्र महारसभोगी, भ्रमभंजन भगवान अरोगी. ५९
कल्मषभंजन केवलदाता धाराधरन धरापति धाता;
प्रज्ञाधिपति परम चारित्री, परमतत्त्ववित् परमविचित्री. ६०
संगातीत संगपरिहारी, एक अनेक अनन्ताचारी;
उद्यमरूपी ऊरधगामी, विश्वरूप विजयी विश्रामी. ६१
(दोहा)
धर्मविनायक धर्मधुज, धर्मरूप धर्मज्ञ;
रत्नगर्भ राधारमण, रसनातीत रसज्ञ. ६२
✤ ✤ ✤
(रूप चौपाई)
परमप्रदीप परमपददानी, परमप्रतीति परमरसज्ञानी;
परमज्योति अघहरन अगेही, अजित अखंड अनंत अदेही. ६३
अतुल अशेष अरेष अलेषी, अमन अवाच अदेख अभेषी;
अकुल अगूढ अकाय अकर्मी, गुणधर गुणदायक गुणमर्म्मी. ६४
आराधनामां रमनारा.

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निस्सहाय निर्म्मम नीरागी, सुधारूप सुपथग सौभागी;
हतकैतवी मुक्तसंतापी, सहजस्वरूपी सबविधि व्यापी. ६५
महाकौतुकी महद विज्ञानी, कपटविदारन करुणादानी,
परदारन परमारथकारी, परमपौरुषी पापप्रहारी. ६६
केवलब्रह्म धरमधनधारी, हतविभाव हतदोष हँतारी;
भविकदिवाकर मुनिमृगराजा, दयासिंधु भवसिंधु जहाजा. ६७
शंभु सर्वदर्शी शिवपंथी, निराबाध निःसंग निर्ग्रन्थी;
यती यंत्रदाहक हितकारी, महामोहबारन बलधारी. ६८
चित्री चित्रगुप्त चिदवेदी, श्रीकारी संसार उछेदी;
चितसन्तानी चेतनवंशी, परमाचारी भरमविध्वंशी. ६९
सदाचरण स्वशरण शिवगामी, बहुदेशी अनंत परिणामी;
वितथभूमिदारन हलपानी, भ्रमवारिजवनदहन हिमानी. ७०
चारु चिदंकित द्धन्दातीती, दुर्गरूप दुर्ल्लभ दुर्जीती;
शुभकारण शुभकर शुभमंत्री जगतारन ज्योतीश्वर जंत्री. ७१
(दोहा)
जिनपुङ्गल जिनकेहरी, ज्योतिरूप जगदीश;
मुक्ति मुकुन्द महेश हर, महदानंद मुनीश. ७३
(मंगलकमला)
दुरितदलन सुखकन्द, हतभीत अतीत अमन्द;
शीलशरण हतकोप, अनभंग अनंग अलोप. ७३

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हंसगरभ हतमोह, गुणसंचय गुणसन्दोह;
सुखसमाज सुखगेह, हतसंकट विगत सनेह. ७४
क्षोभदलन हतशोक; अगणित बल अमलालोक,
धृतसुधर्म कृतहोम, सतसूर अपूरव सोम. ७५
हिमवत हतसंताप व्रजव्यापी विगतालाप;
पुण्यस्वरूपी पूत, सुखसिंधु स्वयं संभूत. ७६
समयसार श्रुतिधार, अविकलप अजल्पाचार;
शांतिकरन धृतशांति कलरूप मनोहरकान्ति. ७७
सिंहासनपर आरूढ, असमंजसहरन अमूढ;
लोकजयी हतलोभ, कृतकर्मविजय घृतशोभ. ७८
मृत्युंजय अनजोग अनुकम्प अशंक असोग;
सुविधिरूप सुमतीश, श्रीमान मनीषाधीश. ७९
विदित विगत अवगाह, कृतकारज रूप अथाह;
वर्द्धमान गुणभान करुणाधर लीलविधान. ८०
अक्षयनिधान अगाध, हतकलिल निहतअपराध;
साध्यरूप साधक धनी, महिमा गुणमेरु महामनी. ८१
दूसरी पुस्तकोमें ‘त्रिगुणातम जिनसन्दोह’ ऐसा पाठ है.

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उत्पत्ति-व्यय-ध्रुववान, त्रिपदी त्रिपुंज त्रिविधान;
जगजीत जगदाधार, करुणागृह विपत्तिविदार. ८२
जगसाक्षी वरवीर गुणगेह महागंभीर;
अभिनंदन अभिराम, परमेयी परमोद्दाम. ८३
(दोहा)
सगुण विभूती वैभवी सेमुषीश संबुद्ध;
सकल विश्वकर्मा अभव, विश्वविलोचन शुद्ध. ८४
(मंगलकमला)
शिवनायक शिव एव, प्रबलेश प्रजापति देव;
मुदित महोदय मूल, अनुकम्पा सिंधु अकूल. ८५
नीरोपम गतपंक, नीरीहत निर्गतशंक;
नित्य निरामय भौन, नीरन्ध्र निराकुल गौन. ८६
परम-धर्मरथसारथी, धृत केवलरूप कृतारथी;
परम वित्त भंडार, संवरमय संयमधार. ८७
शुभी सरवगत संत, शुद्धोधन शुद्ध सिद्धंत,
नैयायक नयजान, अविगत अनंत अभिधान. ८८
कर्मनिर्जरामूल, अघभंजन सुखद अमूल,
अद्भुत रूप अशेष, अवगमनिधि अवगमभेष. ८९
१ गतपंक = पापरहित

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बहुगुण-रत्नकरंड, ब्रह्मांड-रमण-ब्रह्मंड;
वरद बंधु भरतार, महदंग महानेतार. ९०
गतप्रमाद गतपास, नरनाथ निराथ निरास;
महामंत्र महास्वामी, महदर्थ महागति-गामि. ९१
महानाथ महजान, महपावन महानिधान,
गुणागार गुणवास, गुणमेरु गंभीर विलास. ९२
करुणामूल निरंग, महदासन महारसंग;
लोकबन्धु हरिकेश, महदीश्वर महदादेश. ९३
महाविभु महधववंत धरणीधर धरणीकंत;
कृपावंत कलिग्राम, कारणमय करनविराम. ९४
मायावेलि गयन्द, सम्मोहतिमिरहर-चन्द;
कुमति निकन्दन काज, दुखगजभंजन-मृगराज. ९५
परमतत्त्वसत संपदा, त्रिगुणी त्रिकालदर्शी सदा;
कोपदवानल नीर, मदनीरदहरण समीर. ९६
भवकांतार-कुठार संशयमृणालअसिधार;
लोभशिखरनिर्घात विपदानिशिहरणप्रभात. ९७

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(दोहा)
संवररूपी शिवरमण, श्रीपति शीलनिकाय;
महादेव मनमथमथन, सुखमय सुखसमुदाय. ९८
(उपसंहार)
इति श्री सहस-अठोतरी, नाममालिका मूल;
अधिक कसर पुनरुक्ति की, कविप्रमादकी भूल. ९९
परमपिंड ब्रह्मांडमें, लोकशिखर निवसंत;
निरखि नृत्य नानारसी, बानारसी नमंत. १००
महिमा ब्रह्मविलासकी, मोपर कही न जाय;
यथाशक्ति कछु वरणई, नामकथन गुणगाय. १०१
संवत सोलहसो निवे, श्रावण सुदि आदित्य;
करनक्षत्र तिथि पंचमी, प्रगट्यो नाम कवित्त. १०२
❊ ❊ ❊
प्रभु महिमा
(रागभुजंगी)
अहो! योग महिमा जगन्नाथ केरो,
टलें पंच कल्याणक जग अंधेरो;
तदा नारकी जीव पण सुख पावे,
चरण सेववा धसमस्या देव आवे.

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तजी भोग लई योग चारित्र पाळे,
धरी ध्यान अध्यात्म घनघाति टाळे;
लहे केवलज्ञान सुर कोडि आवे,
समवसरण मंडाई सवि दोष जावे.
घटे द्रव्य जगदीश अवतार ऐसो;
कहो भाव जगदीश अवतार कैसो!
रमे अंश आरोप धरी ओघद्रष्टि;
लहे पूर्ण ते तत्त्व जे पूर्णद्रष्टि.
त्रिकालज्ञ अरिहंत जिन पारगामी,
विगतकर्म परमेष्ठी भगवंत स्वामी;
प्रभु बोधिदायक आप्त स्वयंभू,
ज्यो देव तीर्थंकरो तूं ज शंभु.
इस्यां सिद्धजिननां कह्यां सहस्र नाम,
रहो शब्द-झगडो लहो शुद्ध धाम;
श्री जिनराज बुध चरण सेवी,
कहे शुद्धपदमांहि निज द्रष्टि देवी.
जिनेन्द्रस्तवन
(भुजंगप्रयात वृत्त)
जगन्नाथ जगदीश जगबंधु नेता,
चिदानंद चित्कंद चिन्मूर्ति चेता;
9

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महा मोह भेदी, अमायी अवेदी,
तथागत तथारूप भव तरु-उच्छेदी.
निरातंक निकलंक निरमल अबंधो,
प्रभो दीनबंधो कृपानीर सींधो;
सदातन सदाशिव सदा शुद्ध स्वामी,
पुरातन पुरुष पुरुषवर वृषभगामी.
प्रकृति रहित हित वचन मायातीत,
महाप्राज्ञ मुनियज्ञ पुरुष प्रतीत;
दलित कर्मभर कर्मफल सिद्धिदाता,
हृदय पूत अवधूत नूतन विधाता.
महाज्ञान योगी महात्मा अयोगी,
महा धर्म संन्यास वर लच्छी भोगी;
महा ध्यान लीनो समुद्रो अमुद्रो,
महा शांत अतिदांत मानस अरुद्रो.
महेंद्रादिकृतसेव देवाधिदेव,
नमो ते अनाहत चरण नित्यमेव;
जगन्नाथ जगदीश जगबंधु नेता,
चिदानंद चित्कंद चिन्मूर्ति चेता.
❋ ❋ ❋

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श्री सीमंधर जिनस्तवन
(रागशांतिजिन एक मुज विनंती)
एणी परे में प्रभु विनव्यो, सीमंधर भगवंतो रे;
जाणुं हुं ध्याने प्रगट हुतो, केवल-कमलानो कंतो रे...
ज्यो ज्यो जगगुरु जय धणी.
तुं प्रभु हुं तुज सेवको, ए व्यवहार विवेको रे;
निश्चयनय नहि आंतरो, शुद्धातम गुण एको रे.....
ज्यो०
जिणे आराधन तुज कर्युं, तस साधन कुण लेखे रे;
दूर देशांतर कुण भमे, जे सुरमणि घर देखे रे.....
ज्यो०
अगम अगोचर नय-कथा, पार कुणे नवि लहीए रे...
तेणे तुज शासन एम कह्युं, बहुश्रुत-वयणडे रहीए रे...
ज्यो०
तुं मुज एक हृदये वस्यो, तुंही ज पर उपगारी रे;
भरत-भविक-हित-अवसरे, मुज मत मेलो विसारी रे..
ज्यो०

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श्री सीमंधर जिनस्तवन
एम ढुंढतां रे धर्म सोहामणो,
मिलिया सद्गुरु एक;
तेणे साचो रे मारग दाखव्यो;
आणी हृदय विवेक......
श्री सीमंधर साहिब! सांभळो.......१
परघर जोतां रे धर्म तुमे फरो,
निजघर न लहो रे धर्म;
जिम नवि जाणे रे मृग कस्तूरीयो,
मृगमद परिमलमर्म.......श्री० २
जिम ते भूलो रे मृग दिशिदिशि फरे;
लेवा मृगमदगंध;
तिम जग ढुंढे रे बाहिर धर्मने,
मिथ्याद्रष्टि रे अंध......श्री० ३
जातिअंधनो रे दोष न आकरो,
जे नवि देखे रे अर्थ;
मिथ्याद्रष्टि रे तेहथी आकरो,
माने अर्थ अनर्थ.......श्री० ४
आप प्रशंसे रे परगुण ओलवे,
न धरे गुणनो रे लेश;

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ते जिनवाणी रे नवि श्रवणे सूणे,
दिए मिथ्या उपदेश....श्री० ५
ज्ञानप्रकाशेरे मोहतिमिर हरे;
जेहने सद्गुरु-सूर;
ते निज देखेरे सत्ता धर्मनी,
चिदानंद भरपूर.....श्री० ६
जिम निरमलता रे रतनस्फटिकतणी,
तिम ए जीव-स्वभाव;
ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशीयो,
प्रबलकषायअभाव....श्री० ७
जिम ते रातेरे फूले रातडुं,
श्याम फूलथीरे श्याम;
पाप-पुण्यथीरे तिम जग-जीवने,
रागद्वेष-परिणाम........श्री० ८
धर्म न कहिये रे निश्चे तेहने,
जेह विभाव वडव्याधि;
श्री सद्गुरुएरे एणीपेरे भाखीयुं,
करमे होये उपाधि.....श्री० ९
जे जे अंशेरे निरुपाधिकपणुं,
ते ते जाणोरे धर्म;

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सम्यग्द्रष्टि रे गुणठाणा थकी,
जाव लहे शिवशर्म.....श्री० १०
एम जाणीने रे ज्ञानदशा भजी,
रहीए आप स्वरूप;
परपरिणतिथी रे धर्म न छांडिए,
नवि पडिए भवकूप.....श्री० ११
श्री पार्श्वजिनस्तवन
(हो कुंथुजिन! मनडुं कीमही न बाजेए देशी)
अनुभव अमृतवाणी हो पार्श्वजिन!
अनुभव अमृतवाणी;
सुरपति भया जे नाग श्रीमुखथी,
ते वाणी चित्त आणी हो.....पार्श्वजिन० १
स्याद्वादमुद्रा मुद्रित शुचि,
जिम सुरसरिता पाणी;
अंतर मिथ्याभाव-लता जे,
छेदण तास कृपाणी हो.....पार्श्वजिन० २
अहो निशीनाथ असंख्य मळ्या तिम,
तिरछे अचरिज एही;
लोकालोक प्रकाश अंश जस,
तस उपमा कहो केही हो....पार्श्वजिन० ३

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विरह वियोग हरणी ए दती,
संधी ए वेग मिलावे;
याकी अनेक अवंचकताथी,
आणाभिमुख, कहावे हो....पार्श्वजिन० ४
अक्षर एक अनंत अंश जिहां,
लेप रहित मुख भाखो;
तास क्षयोपशम भाव वध्याथी;
शुद्ध वचन रस चाखो हो....पार्श्वजिन० ५
चाख्याथी मन तृप्त थयुं नवि,
शा माटे लोभावो;
कर करुणा करुणारस-सागर,
पेट भरीने पावो हो.....पार्श्वजिन० ६
ए लवलेश लह्याथी साहिब,
अशुभ युगल गति वारी;
चिदानंद वामासुत केरी,
वाणीनी बलिहारी हो....पार्श्वजिन० ७
श्री अजितनाथ जिनस्तवन
(अजित जिणंदशुं प्रीतडीए देशी)
अजित अजित जिन ध्याईए,
धरी हिरदे हो भवि निर्मळ ध्यान.......के
वाणी

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हृदय सरिता में रह्यो,
सुरभि सम हो लही तास विज्ञान..के...अ० १
कीट ध्यान भृंगी तणो,
नित धरता हो ते भृंगी निदान.....के
ले कलधौत स्वरूपता,
लोह फरसत हो पारस पाखान....के....अ० २
+पीचुमंदादिक सही,
होय चंदन हो मलयाचळ संग.....के
सैंधव क्यारीमें पड्या,
जिम पलटे हो वस्तुनो रंग.....के.....अ० ३
ध्येयरूपनी एकता,
करे ध्याता हो धरे ध्यान सुजान....के...
करे कतक मळभिन्नता,
जिम नासे हो तम उगते भान.....के.....अ० ४
पुष्टालंबन योगथी,
निरालंबता हो सुख साधन जेह.....के....
चिदानंद अविचळ कळा,
क्षणमांहे हो भवि पावे तेह.....के....अ० ५
सोनुं. + लींबडो वगेरे.

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श्री नेमिनाथ जिनस्तवन
(अजित जिणंदशुं प्रीतडीए राग)
परमातम पूरण कळा,
पूरण गुण हो पूरण जन-आश.....के
पूरण द्रष्टि निहाळीए;
चित्त धरीए हो अमची अरदास...के....प० (१)
सर्वदेशघाति सहु,
अघाति हो करी घात दयाळ.....के
वास कीयो शिवमंदिरे,
मोहे विसरी हो भमतो जगजाळ...के...प० (२)
जगतारक पदवी लही,
तार्या सही हो अपराधी अपार.....के
तातें कहो मोहे तारतां,
किम कीनी हो इण अवसर वार.....के....प० (३)
मोह महामद छाकथी,
हुं छकियो हे आव्यो तुम पास.....के
उचित सही इणे अवसरे,
सेवकनी हो करवी संभाळ....के....प० (४)
मोह गयां जो तारशो,
तिणवेळा हो कहा तुम उपकार........के

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सुखवेळा सज्जन घणा,
दुःखवेळा हो विरला संसार.....के......प० (५)
पण तुम दरिसन जोगथी,
थयो हृदये हो अनुभव परकाश....के
अनुभव अभ्यासी करे,
दुःखदायी हो सहु कर्म विनाश.....के.....प० (६)
कर्म कलंक निवारीने,
निजरूपे हो रमे रमता राम....के
लहत अपूरव भावथी,
इण रीते हो तुम पद विश्राम.....के......प० (७)
त्रिकरण जोगे विनवुं,
सुखदायी हो शिवादेवीनंद......के
चिदानंद मनमें सदा,
तुम आवो हो प्रभु नाणदिणंद....के.....प० (८)
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(ललना राग)
जगतगुरु जिन माहरो, जगदीपक जिनराय लालरे;
शांति सुधारस ध्यानमां, आतम अनुभव आय लालरे.
जगत०

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चित्त प्रसन्नता द्रढ थई, क्रीडति खेला खेल लालरे;
ते ट्टग ट्टगते ज्ञानथी, वधती वेल कलोल लालरे.
जगत०
ज्ञान-दर्शन-चारित्र भला, द्रव्य ते एकाएक लालरे;
षट द्रव्य द्रव्यपणे रह्यां, देखत शोभा देख लालरे;
जगत०
ते तुज दरिसण जाणिये, आणिये चित्त आणंद लालरे;
विकसित वदन कमळ मुदा, जिम सुरतरु सुखकंद लालरे.
जगत०
इम गुण जिनजी ताहरा, माहरा चित्तमां आय लालरे;
सीमंधर जिन ध्यानथी, आतम आनंदपद पाय लालरे.
जगत०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(लालनाराग)
त्रिभुवन नायक लायको, सीमंधर जिनरायो रे;
बलिहारी तुज नामनी, जिणे मारग शुद्ध बतायो रे,
ते तो आतमने मन भायो रे. ब० १
निवृत्ति नयरीए छाजता, राजता अक्षयराजे रे;
अतिशय निरमळ वररुचि; मारा परमेश्वरने दिवाजे रे. ब० २

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स्व-पर-प्रकाशक दिनमणि, शुद्ध स्वरूपी अप्रयासी रे;
सकळ दानादिक गुण तणी, व्यक्तता शक्ति अनासी रे. ब० ३
सहज आनंद वीतरागता, प्रदेश प्रदेशे अनूप रे;
सादि अनंत भांगे करी, पूर्ण नये तस भूप रे. ब० ४
अविसंवादि निमित्तपणें, सवि तुज शक्ति माहरे रे;
सत्य हेतु बहु आदरे, होय भव भेद प्रसारे रे. ब० ५
भववासी जे आतमा, ते प्रभु प्रभुता अवलंबे रे;
भेद छेद करी जिन होये, पण न होये ते विलंबे रे. ब० ६
परम शिवंकर गोपने, जे नर चित्तमां ध्यावे रे;
दिव्य बहु सुख शाश्वता, आतमलक्ष्मी पावे रे. ब० ७
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(दीठां लोयण आजराग)
सीमंधर जिन चंद्रमारे, उदयो सहज सनूर;
पाप ताप दूरे मीट्योरे, प्रगट्यो आनंदपूर,
भविकजन प्रणमो ए जिनचंद; दरिशण परमानंद. भ०
चतुर चकोरा हरखियारे, पसर्यो पुण्यप्रकाश;
ज्ञानजलनिधिये उल्लस्यो रे, उपशम-लहरी-विलास. भ०
चारित्र-चंद्रिका चिहुं दिशे रे, प्रसरी निरमल नूर;
करम-भरम-राहु गयो रे, नासी जेहथी दूर. भ०

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समकित-कैरव-कानने रे, प्रगट्यो परम विकास;
मिथ्यामति-कमलाकरे रे, पाम्यो मुंद्रावास. भ०
करुणा ने माध्यस्थता रे, मुदिता मैत्री चंग;
चार दिशे जस उदयथी रे, वाध्यो अति उछरंग. भ०
शुद्ध क्रिया सवि औषधि रे, पामी रुचिपीयूष;
मुगती फल सफळी फळे रे, सरग कुसुम सजूष. भ०
अकलंकी उदयी जपो रे, अनुपम ए जिनचंद;
उंच भावे प्रभु प्रणमतां रे, नित नित परमानंद. भ०
श्री शांति जिनस्तवन
शांति जिणेसर केसर, अर्चित जगधणी रे....अर्चित०
सेवा कीजे साहिब, नित नित तुम तणी रे... नित०
तुज विण दूजो देव, न कोई दयालुओ रे.....न कोई०
मन-मोहन भवि-बोधन, तूंही मयालुओ रे.... तूंही०
दुरित अपासन शासन, तूं जग पावनो रे....तूं जग०
सुकृतउल्लासन, कर्मनिकासन भावनो रे.....निकासन०
सिंहासन पद्मासन, बेठो जे ठवेरे....बेठो०
जग-भासन पर-शासन, वासन खेपवेरे१.....वासन०
वाणी गंग तरंग, सुरंग ते उच्छलेरे....सुरंग०
नयगमभंगप्रमाण, प्रवाह घणा भलेरे प्रवाह०
१.पेखवेरे.

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निश्चय नय व्यवहार, तिहां भमरी भमेरे....तिहां०
बुद्धि नाव जस चाले, तेहने सहु नमेरे.....तेहने०
निश्चय ने व्यवहार, तणी चर्चा घणीरे....तणी०
जाणे नव जन ताणे, दिलरुचि आपणीरे....दिल०
स्याद्वाद घर मांहि, घड्या दोय घोडलारे.....घड्या०
देखे पक्ष उवेखे, ते जग थोडलारे......ते जग०
मांहो मांहि ते बिहुं जेम, नय चरचा करेरे...नय०
भरत क्षेत्रना भाविक, श्रावक मन धरेरे......श्रावक०
तिम हुं कांईक ढाल, रसाल दाखवुंरे......रसाल०
पण तुज वचन प्रमाण, तिहां मुज भाखवुंरे....तिहां०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(गिरुआरे गुण तुम तणाए देशी)
भाव धरीने आविया, तुज समवसरण जब दीठुं रे;
बे नयनो झघडो टळ्यो, तुज दर्शन लाग्युं मीठुं रे;
बलिहारी प्रभु तुम तणी.
स्याद्वाद आगळ करी, तुमे बिहुंने मेळ कराव्यो रे;
अंतरंग रंगे मळ्या, दुर्जननो दाव न फाव्यो रे...
बलि०
परघर भंजक खल घणा, ते चित्त मांहि खांचा घाले रे;
पण तुम सरिखा प्रभु जेहने, तेहश्युं तेणे कांई न चाले रे..
बलि०