Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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तामहि चहुं दिशि शिखरि उतंग, तिनको मान कहुं सरवंग;
दिशि पूरव गिरि तेरह सही, ताकी उपमा जाय न कही.
मध्य एक अंजनके रंग, शिखरि उतंग बन्यो सरवंग;
सहस चौरासी योजन मान, धूपरबत देख्यो भगवान.
ताके चहुं दिशि परबत चार, उज्ज्वल वरन महा सुखकार;
चौसठि सहस्र उतंग जु होय, दधिमुख नाम कहावे सोय.
इक इक दधिमुख परबत तास, द्वै द्वै रतिकर अचल निवास;
इक इक अरुण वरन गिरि मान, सहज चवालिस ऊर्द्धप्रमान.
इहविधि तेरह गिरिवर गने, ता परि चैत्य अकृत्रिम बने;
इक इक गिरिपर इक प्रासाद, ताकी रचना बनी अनाद.
इक जिनमंदिरको विस्तार, सुनहु भविक परमागमसार;
गिरिको शिखर वरत तिहिरूप, रत्नमयी प्रासाद अनूप.
इक चैत्यालय बिंब प्रमान, इकसो आठ अनूपम जान;
रत्नमणी सुंदर आकार, धनुष पांचसो ऊर्ध्व उदार. १०
इम तेरह पूरब दिशि कहे, ताको भेद जिनागम लहे;
छप्पनसो सोरह बिंब सबै, ताकी भावन भाऊं अबै. ११
अनंत ज्ञान जो आतमराम, सो प्रगटहि इह मुद्रा धाम;
लोक अलोक विलोकनहार, ता परदेशनि यह आकार. १२
अनंत काललों यही स्वरूप, सिद्धालय राजै चिद्रूप;
सुख अनंत प्रगटे इहि ध्यान, तातै जिनप्रतिमा परधान. १३

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जिनप्रतिमा जिनवरणे कही, जिन साद्रशमें अंतर नहीं;
सब सुरवृंद नंदीश्वर जाय, पूजहि तहां विविध धर भाय. १४
‘भैया’ नितप्रति शीश नवाय, वंदन करहि परम गुण गाय;
इह ध्यावत निज पावत सही, तौ जयमाल नंदीश्वर कही. १५
श्री पार्श्वनाथकी स्तुति
(कवित्त)
आनंदको कंद किधों पूनमको चंद किधों,
देखिये दिनंद एसो नंद अश्वसेनको;
करमको हरै फंद भ्रमको करै निकंद,
चूरै दुख द्वंद सुख पूरै महा चैनको;
सेवत सुरिंद गुन गावत नरिंद ‘भैया’
ध्यावत मुनिंद तेहू पावैं सुख ऐनको;
ऐसो जिन चंद करै छिनमें सुछंद सुतौ,
ऐक्षितको इंद पार्श्व पूजों प्रभु जैनको.
कोऊ कहै सूरसोम देव है प्रत्यक्ष दोऊ,
कोऊ कहै रामचंद्र राखै आवागौनसों;
कोऊ कहै ब्रह्मा बडो सृष्टिको करैया यहै,
कोऊ कहै महादेव उपज्यो न जोनसों;
कोऊ कहै कृष्ण सब जीव प्रतिपाल करै,
कोऊ लागि रहे है भवानीजीके भौनसों;

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वही उपख्यान साचो देखिये जहांन बीचि,
वेश्याघर पूत भयो बाप कहै कौनसों.
वीतराग नामसेती काम सब होंहि नीके,
वीतराग नामसेती धामधन भरिये;
वीतराग नामसेती विघन विलाय जाय,
वीतराग नामसेती भवसिंधु तरिये;
वीतराग नामसेती परम पवित्र हूजे,
वीतराग नामसेती शिववधू वरिये;
वीतराग नामसम हितू नाहि दूजो कोऊ,
वीतराग नाम नित हिरदैमें धरिये.
श्री जिनस्तुति
(सवैया)
देख जिनमुद्रा जिनरूपको स्वरूप गहै,
रागद्वेषमोहको बहाय डारै पलमें;
लोकालोकव्यापी ब्रह्म कर्मसों अबंध वेद,
सिद्धको स्वभाव सीख ध्यावे शुद्ध थलमें;
ऐसे वीतराग जूके बिंब हैं विराजमान,
भव्यजीव लहै ज्ञान चेतनके दलमें;
मांझनी ओ मंडपकी रचना अनूप बनी,
राणापुर रत्न सम देख्यो पुण्य फलमें. १

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सुबुद्धि प्रकाशमें सु आतम विलासमें सु,
थिरता अभ्यासमें सुज्ञानको निवास है;
ऊरधकी रीतिमें जिनेशकी प्रतीतिमें सु,
कर्मनकी जीतमें अनेक सुख भास है;
चिदानंद ध्यावतही निज पद पावतही,
द्रव्यके लखावतही देख्यो सब पास है;
वीतराग वानी कहै सदा ब्रह्म ऐसें भास,
सुखमें सदा निवास पूरन प्रकाश है.
तीनलोकके अकृत्रिम चैत्यालयकी स्तुति
(चोपाई)
प्रणमहुं परम देवके पाय, मन वच भाव सहित शिरनाय;
अकृत्रिम जिनमंदिर जहां, नितप्रति वंदन कीजे तहां.
प्रथम पताल लोकविस्तार, दश जातिनके देव कुमार;
तिनके भवन भवन प्रति जोय, एक एक जिनमंदिर होय.
असुरकुमारनके परमान, चौसठ लाख चैत्य भगवान;
नागकुमारनके इम भाख, जिनमंदिर चौरासी लाख.
हेमकुमारनके परतक्ष, जिनमंदिर हैं बहतर लक्ष;
विदुतकुमारनके भवनाल, लक्ष छिहत्तर नमूं त्रिकाल.
सुपर्णकुमारनके सब जान, लक्ष बहत्तर चैत्य प्रमान;
अगनिकुमारनके प्रासाद, लक्ष छिहत्तर बने अनाद.

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वातकुमार भवन जिनगेह, लक्ष छिहत्तर बंदहुं तेह;
उदधिकुमार अनोपम धाम, लक्ष छिहत्तर करुं प्रणाम.
दीपकुमार देवके नांव, लक्ष छिहत्तर नमुं तिहँ ठांव;
लक्ष छ्यानवे दिग् कुमार, जिनमंदिर सोहै जैकार.
ये दश भवन कोटि जहँ सात, लक्ष बहत्तर कहे विख्यात;
तिन जिनमंदिरको त्रैकाल; वंदन करुं भवन पाताल.
मध्यलोक जिनचैत्य प्रमान, तिन प्रति बंदों मनधर ध्यान;
पंचमेरु अस्सी जिन भौन, तिनकी महिमा बरने कौन.
वीस बहुर गजदंत निहार, तहां नमूं जिनचैत्य चितार;
तीस कुलाचल पर्वत शीस, जिनमंदिर वंदों निशदीस. १०
विजयारध पर्वतपर कहे, जिनमंदिर सौशत्तर लहे;
सुरद्रुमन दश चैत्य प्रमान, वंदन करों जोर जुगपान. ११
श्रीवक्षार गिरहिं उर धरों, चैत्य अशी नित वंदन करों;
मनुषोत्तर परबत चहुं ओर, नमहुं चार चैत्य करजोर. १२
और कहूं जिनमंदिर थान, इक्ष्वाकारहिं चार प्रमान;
कुंडलगिरिकी महिमा सार, चैत्य जु चार नमूं निरधार. १३
रुचिकनाम गिरिमहा बखान, चैत्य जु चार नमूं उर आन;
नंदीश्वर बावन गिरराव, बावन चैत्य नमहुं धरभाव. १४
मध्यलोक भविके मन भावन, चैत्य चारसौ और अठावन;
तिन जिनमंदिरको निशदीस, वंदन करों नाय निज शीस. १५

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व्यंतर जाति असंखित देव, चैत्य असंख्य नमहुं इह भेव;
ज्योतिष संख्यातैं अधिकाय, चैत्य असंख्य नमूं चितलाय. १६
अब सुरलोक कहूं परकाश, जाके नमत जाहिं अघ नाश;
प्रथम स्वर्ग सौधर्म विमान, लाख बतीस नमूं तिहं थान. १७
दूजो उत्तर श्रेणि इशान, लक्ष्य अठाईस चैत्य निधान;
तीजो सनतकुमार कहाय, बारह लाख नमूं धर भाय. १८
चौथो स्वर्ग महेन्द्र सुठामि, लाख आठ जिनचैत्य नमामि;
ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर दोय, लाख च्यार जिनमंदिर होय. १९
लांतव और कहूं कापिष्ट, सहस पचास नमूं उतकिष्ट;
शुक्र रु महाशुक्र अभिराम, चालिस सहँसनि करुं प्रणाम. २०
सतार सहस्रार सुर लोक, षट सहस्र चरनन द्यों धोक;
आनत प्राण आरण अच्युत, चार स्वर्गसे सात संयुत. २१
प्रथमहि ग्रैव चैत्य जिन देव, इकसो ग्यारह कीजे सेव;
मध्यग्रैव एकसो सात, ताकी महिमा जग विख्यात. २२
उपरि ग्रैव निब्बै अरु एक, ताहि नमूं धर परम विवेक;
नव नवउत्तर नव प्रासाद, ताहि नमूं तजिके परमाद. २३
सबके उपर पंच विमान, तहँ जिनचैत्य नमूं धर ध्यान;
सब सुरलोकनकी मरजाद, कही कथन जिनवचन अनाद. २४
लख चौरासी मंदिर दीस, सहस सत्याणव अरु तेईस;
तीन लोक जिनभवन निहार; तिनकी ठीक कहूं उरधार. २५
आठ कोड अरु छप्पन लाख, सहस सत्याणव उपर भाख;
चहुंसे इक्यासी जिनभौन, ताहि नमूं करिकें चिन्तौन. २६

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धनुष पंचसो बिंबप्रमान, इकसौ आठ चैत्य प्रति जान;
नव अरब्ब अरु कोटि पचीस, त्रेपन लाख अधिक पुनि दीस. २७
सहस सताईस नवसे मान, अरु अडतालीस बिंब प्रमान;
एती जिन प्रतिमा गन कीजे, तिनको नमस्कार नित कीजे. २८
जिनप्रतिमा जिनवरके भेश, रंचक फेर न कह्यो जिनेश;
जो जिनप्रतिमा सो जिनदेव, यहै विचार करै भवि सेव. २९
अनंत चतुष्टय आदि अपार, गुण प्रगटै इह रूप मझार,
तातै भविजन शीस नवाय, वंदन करहिं योग त्रय लाय. ३०
अकृत्रिम अरु कृत्रिम दोय, जिनप्रतिमा वंदो नित सोय;
वारंवार शीश निज नाय, वंदन करहुं जिनेश्वर पाय. ३१
सत्रहसै पैंतालिस सार, भादों सुदी चउदश गुरुवार;
रचना कही जिनागम पाय, जै जै जै त्रिभुवनपतिराय. ३२
(दोहा)
दक्ष लीन गुनको निरख, मूरख मीठे वैन;
‘भैया’ जिनवाणी सुने, होत सबनको चैन. ३३
श्री जिनस्तुति
(सवैया)
पंथ वहै सरवज्ञ जहां प्रभु, जीव अजीवके भेद बतैये,
पंथ वहै जु निर्ग्रन्थ महामुनि, देखत रूप महासुख पैये;
पंथ वहै जहँ ग्रंथ विरोध न, आदि औ अंतलों एक लखैये,
पंथ वहै जहँ जीवदयावृष, कर्म खपाई कैं सिद्धमें जैये.

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पंथ वहै जहँ साधु चलै, सब चेतनकी चरचा चित्त लैये,
पंथ वहै जहँ आप विराजत, लोक अलोकके इश जु गैये;
पंथ वहै परमान चिदानंद, जाके चलैं भव भूल न ऐये,
पंथ वहै जहँ मोक्षको मारग, सूधे चले शिवलोकमें जैये. २
श्री जिनवरस्तुति
(सवैया)
केवलीके ज्ञानमें प्रमाण आन सब भासै,
लोक औ अलोकन की जेती कछु बात है;
अतीत काल भई है अनागतमें होयगी,
वर्तमान समैकी विदित यों विख्यात है;
चेतन अचेतनके भाव विद्यमान सबै,
एक ही समैमें जो अनंत होत जात है;
ऐसी कछु ज्ञानकी विशुद्धता विशेष बनी,
ताको धनी यहै हंस कैसें विललात है.
छ्यानवे हजार नार छिनकमें दीनी छार,
अरे मन ता निहार काहे तू डरत है;
छहों खंडकी विभूति छांडत न बेर कीन्ही,
चमू चतुरंगनसों नेह न धरत है;
नौ निधान आदि जे चउदह रतन त्याग,
देह सेती नेह तोर वन विचरत है.

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ऐसी विभो त्यागत विलंब जिन कीन्हों नाहिं,
तेरे कहो केती निधि सोच क्यों करत हैं.
श्री जिनस्तुति
(कवित्त)
देहधारी भगवान करे नाहीं खान पान,
रहै कोटि पूरबलों जगमें प्रसिधि है;
बोलता अमोल बोल जीभ होठ हालै नाहिं,
दैखैं अरु जानै सब, इन्द्री न अवधि है;
डोलत फिरत रहै डग न भरत कहै,
परसंग त्यागी संग देखो केती रिधि है;
ऐसी अचरज बात मिथ्या उर कैसें मात,
जानै सांची द्रष्टिवारो जाके ज्ञाननिधि है.
देखत जिनंदजूको देखत स्वरूप निज;
देखत है लोकालोक ज्ञान उपजायके;
बोलत है बोल ऐसे बोलत न कोउ ऐसें,
तीन लोक कथनको देत है बतायके;
छहों काय राखिवेकी सत्य वैन भाखिवेकी,
परद्रव्य नाखिवेकी कहै समुझायके;
करम नसायवेकी आप निधि पायवेकी,
सुखसों अघायवेकी रिद्धि दै लखायके.

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श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरस्तुति
(दोहा)
वीस चार जगदीशको, बंदों शीस नवाय,
कहुं तास जयमालिका, नामकथन गुण गाय.
(पद्धरि छन्द १६ मात्रा)
जय जय प्रभु ॠषभ जिनेन्द्रदेव,
जय जय त्रिभुवनपति करहिं सेव;
जय जय श्री अजित अनंत जोर,
जय जय जिहं कर्म हरे कठोर.
जय जय प्रभु संभव शिवसरूप,
जय जय शिवनायक गुण अनूप;
जय जय अभिनंदन निर्विकार,
जय जय जिहिं कर्म किये निवार.
जय जय श्री सुमति सुमति प्रकाश,
जय जय सब कर्म निकर्म नाश;
जय जय पदमप्रभ पद्म जेम,
जय जय रागादि अलिप्त नेम.
जय जय जिनदेव सुपार्श्व पास,
जय जय गुणपुंज कहै निवास;

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जय जय चन्द्रप्रभ चन्द्रकांति,
जय जय तिहुं पुरजन हरन भ्रांति.
जय जय पुष्पदंत महंत देव,
जय जय षट द्रव्यनि कहन भेव;
जय जय जिन शीतल शीलमूल,
जय जय जिन मनमथ-मृग-शारदूल.
जय जय श्रेयांस अनंत बच्छ,
जय जय परमेश्वर हो प्रतच्छ;
जय जय श्री जिनवर वासुपूज,
जय जय पूज्यनके पूज्य तूज.
जय जय प्रभु विमल विमल महंत,
जय जय सुख दायक हो अनंत;
जय जय जिनवर श्री अनंतनाथ,
जय जय शिवरमणी ग्रहण हाथ.
जय जय श्री धर्मजिनेन्द्र धन्न;
जय जय जिन निश्चल करन मनन;
जय जय श्री जिनवर शांतिदेव,
जय जय चक्री तीर्थंकरदेव.
जय जय श्रीकुंथु कृपानिधान,
जय जय मिथ्यातमहरन भान;
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जय जय अरिजीतन अरहनाथ,
जय जय भवि जीवन मुक्ति साथ. १०
जय जय मलिनाथ महा अभीत,
जय जय जिन मोहनरेन्द्र जीत;
जय जय मुनिसुव्रत तुम सुज्ञान,
जय जय त्रिभुवनमें दीप भान. ११
जय जय नमिनाथ निवास सुक्ख,
जय जय तिहुं भवननि हरन दुःख;
जय जय श्री नेमकुमार-चंद,
जय जय अज्ञानमतके निकंद. १२
जय जय श्रीपार्श्व प्रसिद्ध नाम,
जय जय भविदायक मुक्तिधाम;
जय जय जिनवर श्री वर्द्धमान,
जय जय अनंत सुखके निधान. १३
जय जय अतीत जिन भये जेह,
जय जय सु अनागन ह्वै हैं तेह;
जय जय जिन हैं जे विद्यमान,
जय जय तिन बंदो धर सु ध्यान. १४

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जय जय जिनप्रतिमा जिनस्वरूप,
जय जयसु अनंत चतुष्ट भूप;
जय जय मन वच निज सीसनाय,
जय जय जय ‘भैया’ नमैं सुभाय. १५
(धत्ता)
जिनरूप निहारे आप विचारे, फेर न रंचक भेद कहै,
‘भैया’ इम वंदे ते चिरनंदै, सुख अनंत निजमाहिं लहै. १६
कविवर पं० बनारसीदासजीकृत
श्री जिनसहस्रनामस्तोत्र
(दोहा)
परमदेव परनामकर, गुरुको करहुं प्रणाम,
बुधिबल वरणों ब्रह्मके, सहस्रअठोत्तर नाम.
केवल पदमहिमा कहों, कहों सिद्ध गुनगान;
भाषा प्राकृत संस्कृत, त्रिविधि शब्द परमान.
एकारथवाची शबद, अरु द्विरुक्ति जो होय;
नाम कथनके कवितमें, दोष न लागे कोय.
(चौपाई १५ मात्रा)
प्रथम ॐकाररूप इशान, करुणासागर कृपानिधान;
त्रिभुवननाथ इश गुणवृन्द, गिरातीत गुणमूल अनिन्द.

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गुणी गुप्ती गुणवाहक बली, जगतदिवाकर कौतूहली;
क्रमवर्ती करुणामय क्षमी, दशावतारी दीरघ दमी.
अलख अमूरति अरस अखेद, अचल अबाधित अमर अवेद;
परम परमगुरु परमानन्द, अन्तरजामी आनँदकन्द.
प्राणनाथ पावन अमलान, शीलसदन निर्मल परमान;
तत्त्वरूप तपरूप अमेय, दयाकेतु अविचल आदेय.
शीलसिन्धु निरुपम निर्वाण, अविनाशी अस्पर्श अमान;
अमल अनादि अदीन अछोभ, अनातंक अज अगम अलोभ.
अनवस्थित अध्यातमरूप, आगमरूपी अघट अनूप;
अपट अरूपी अभय अमार, अनुभवमंडन अनघ अपार.
विमलपूतशासन दातार, दशातीत उद्धरन उदार;
नभवत पुंडरीकवत् हंस, करुणामन्दिर एनविध्वंस. १०
निराकार निहचै निरमान, नानारसी लोकपरमान;
सुखधर्मी सुखज्ञ सुखपाल, सुन्दर गुणमन्दिर गुणमाल. ११
(दोहा)
अम्बरवत आकाशवत, क्रियारूप करतार;
केवलरूपी कौतूकी, कुशली करुणासागर. १२
(चौपाई)
ज्ञानगम्य अध्यातमगम्य, रमाविराम रमापति रम्य;
अप्रमाण अघहरण पुराण, अनमित लोकालोक प्रमाण. १३
१. ‘विपुल’ ऐसा भी पाठ है

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कृपासिन्धु कूटस्थ अछाय, अनभव अनारूढ असहाय;
सुगम अनन्तराम गुणग्राम, करुणापालक करुणाधाम. १४
लोकविकाशी लक्षणवन्त, परमदेव परब्रह्म अनन्त;
दुराराध्य दुर्गस्थ दयाल, दुरारोह दुर्गम द्रिगपाल. १५
सत्यारथ सुखदायक सूर, शीलशिरोमणि करुणापूर;
ज्ञानगर्भ चिद्रूप निधान, नित्यानन्द निगम निरजान. १६
अकथ अकरता अजर अजीत; अवपु अनाकुल विषयातीत;
मंगलकारी मंगलमूल, विद्यासागर विगतदुकूल. १७
नित्यानन्द विमल निरुजान, धर्मधुरंधर धर्मविधान;
ध्यानी धामवान धनवान, शीलनिकेतन बोधनिधान. १८
लोकनाथ लीलाधर सिद्ध, कृती कृतारथ महासमृद्ध;
तपसागर तपपुंज अछेद, भवभयभंजन अमृत अभेद. १९
गुणावास गुणमय गुणदाम, स्वपरप्रकाशक रमताराम;
नवल पुरातन अजित विशाल, गुणनिवास गुणग्रह गुणपाल. २०
(दोहा)
लघुरूपी लालचहरन, लोभविदारन वीर,
धारावाही धौतमल, धेय धराधर धीर. २१
(पद्धरि छंद)
चिन्तामणि चिन्मय परम नेम, परिणामी चेतन परम छेम;
चिन्मूरति चेता चिद्विलास, चूडामणि चिन्मय चन्द्रभास. २२
१ ‘विपति अतीत’ ऐसा भी पाठ है. २ वस्त्र.

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चारित्रधाम चित् चमत्कार, चरनातमरूपी चिदाकार;
निर्वाचक निर्मम निराधार, निरजोग निरंजन निराकार. २३
निरभोग निरास्रव निराहार, नगनरकनिवारी निर्विकार;
आतमा अनक्षर अमरजाद, अक्षर अबंध अक्षय अनाद. २४
आगत अनुकम्पामय अडोल, अशरीरी अनुभूती अलोल;
विश्वंभर विस्मय विश्वटेक, व्रजभूषण व्रजनायक विवेक. २५
छलभंजन छायक छीनमोह, मेधापति अकलेवर अकोह;
अद्रौह अविग्रह अग अरंक, अद्भुतनिधि करुणापति अबंक. २६
सुखराशि दयानिधि शीलपुंज, करुणासमुद्र करुणाप्रप्रुंज;
वज्रोपम व्यवसायी शिवस्थ, निश्चल विमुक्त ध्रुव सुथिर सुस्थ. २७
जिननायक जिनकुंजर जिनेश, गुणपुंज गुणाकर मंगलेश;
क्षेमंकर अपद अनन्तपानि, सुखपुंजशील कुलशील खानि. २८
करुणारसभोगी भवकुठार, कुषिवत कृशानु दारन तुसार;
कैतवरिपु अकल कलानिधान, धिषणाधिप ध्याता ध्यानवान. २९
(दोहा)
छपाकरोपम छलरहित, छेत्रपाल छेत्रज्ञ;
अंतरिक्षवत गगनवत्, हुतकर्मा कृतयज्ञ. ३०
(पद्धरि छन्द)
लोकांत लोकप्रभु लुप्तसमुद्र, संवर सुखधारी सुखसमुद्र;
शिवरसी गूढरूपी गरिष्ट, बलरूप बोधदायक वरिष्ट. ३१
विद्यापति धीधव विगतवाम, धीवंत विनायक वीतकाम;
धीरस्व शिलीद्रम शीलमूल, लीलाविलास जिन शारदूल. ३२
१. चंद्रोपम.

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परमारथ परमातम पुनीत, त्रिपुरेश तेजनिधि त्रपातीत;
तपराशि तेजकुल तपनिधान, उपयोगी उग्र उदोतवान. ३३
उत्पातहरण उद्दामधाम, व्रजनाथ विमक्षर विगतनाम;
बहुरूपी बहुनामी अजोष, विषहरण विहारी विगतदोष. ३४
छितिनाथ छमाधर छमापाल, दुर्गम्य दयार्णव दयामाल;
चतुरेश चिदातम चिदानंद, सुखरूप शीलनिधि शीलकन्द. ३५
रसव्यापक राजा नीतिवंत, ॠषिरूप महर्षि महमहंत;
परमेश्वर परमॠषि प्रधान, परत्यागी प्रगट प्रतापवान. ३६
परतक्षपरमसुख परममुद्र, हन्तारि परमगति गुणसमुद्र;
सर्वज्ञ सुदर्शन सदातृप्त, शंकर सुवासवासी अलिप्त. ३७
शिवसम्पुटवासी सुखनिधान, शिवपंथ शुभंकर शिखावान;
असमान अंशधारी अशेष, निर्द्वन्दी निर्जड निरवशेष. ३८
(दोहा)
विस्मयधारी बोधमय, विश्वनाथ विश्वेश,
बंधविमोचन वज्रवत बुधिनायक विबुधेश. ३९
(छन्द रोडक)
महामंत्र मंगलनिधान मलहरन महाजप,
मोक्षस्वरूपी मुक्तिनाथ मतिमथन महातप;
निस्तरङ्ग निःसङ्ग नियमनायक नंदीसुर,
महादानि महज्ञानि महाविस्तार महागुर. ४०

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परिपूरण परजायरूप कमलस्थ कमलवत,
गुणनिकेत कमलासमूह धरनीश ध्यानरत;
भूतिवान भूतेश भारछम भर्मउछेदक,
सिंहासननायक निराश निरभयपदवेदक. ४१
शिवकारण शिवकरन भविक बंधव भवनाशन,
नीरिरंश निःसमर सिद्धिशासन शिवआसन;
महाकाज महाराज मारजित मारविहंडन,
गुणमय द्रव्यस्वरूप दशाधर दारिदखंडन. ४२
जोगी जोग अतीत जगत उद्धारन उजागर,
जगतबंधु जिनराज शीलसंचय सुखसागर;
महाशूर सुखसदन तरनतारन तमनाशन,
अगनितनाम अनंतधाम निरमद निरवासन. ४३
वारिजवत जलजवत पद्म-उप्पम पंकजवत,
महाराम महधाम महायशवंत महासत;
निजकृपालु करुणालु बोधनायक, विद्यानिधि,
प्रशमरूप प्रशमीश परमजोगीश परमविधि. ४४
(वस्तु छन्द)
शुभकारनशील इह शील राशि संकट निवारन,
त्रिगुणातम तपतिहर परमहंस परपंचवारन;
परम पदारथ परमपथ, दुखभंजन दुरलक्ष,
तोषी सुखपोषी सुगति, दमी दिगम्बर दक्ष. ४५

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(रोडक छन्द)
परमप्रबोध परोक्षरूप परमादनिकन्दन,
परमध्यानधर परमसाधु, जगपति जगवंदन;
जिनजिनपतिजिनसिंह, जगतमणिबुधकुलनायक,
कल्पातीत कुलालरूप, द्रग्मय द्रगदायक. ४६
कोपनिवारण धर्मरूप, गुणराशि रिपुंजय,
करुणासदन समाधिरूप शिवकर शत्रुंजय;
परावर्त्तरूपी प्रसन्न, आतमप्रमोदमय;
निजाधीन निर्द्वन्द, ब्रह्मवेदक व्यतीतभय. ४७
अपुनर्भव जिनदेव सर्वतोभद्र कलिलहर,
धर्माकर ध्यानस्थ धारणाधिपति धीरधर;
त्रिपुरगर्भ त्रिगुणी त्रिकाल कुशलातपपादप,
सुखमन्दिर सुखमय अनन्तलोचन अविषादप. ४८
लोकअग्रवासी त्रिकालसाखी करुणाकर,
गुणआश्रय गुणधाम गिरापति जगतप्रभाकर;
धीरज धौरी धौतकर्म धर्म्मग धामेश्वर,
रत्नाकर गुणरत्नराशि रंजहर रामेश्वर. ४९
निरलिंग शिवलिंगधार बहुतुंड अनानन,
गुणकदम्ब गुणरसिक रूपगुण-अंघ्रिप-कानन;

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निरअंकुश निरधाररूप निजपर परप्रकाशक,
विगतास्रव निरबंध बंधहर बंधविनाशक. ५०
वृहत अनंक निरंश अंशगुणसिन्धु गुणालय,
लक्ष्मीपति लीलानिधान वितपति विगतालय;
चन्द्रवदन गुणसदन चित्रधर्म सुखथानक,
ब्रह्माचारी वज्रवीय बहुविधि निरवानक. ५१
(दोहा)
सुखकदम्ब साधकसरन, सुजन इष्टसुखवास;
बोधरूप बहुलातमक, शीतल शीलविलास. ६२
✧ ✧ ✧
(रूप चौपाई)
केवलज्ञानी केवलदरसी, सन्यासी संयमी समरसी,
लोकातीत अलोकाचारी, त्रिकालज्ञ धनपति धनधारी. ५३
चिन्ताहरण रसायन रूपी, मिथ्यादलन महारसकूपी,
निर्वृतिकर्ता मृषापहारी, ध्यानधुरंधर धीरजधारी. ५४
ध्याननाथ ध्यायक बलवेदी, घटातीत घटहर घटभेदी,
उदयरूप उद्धत उतसाही, कलुषहरणहर किल्विषदाही. ५५
वीतरागबुद्धि सुविचारी, चन्द्रोपम वितन्द्र व्यवहारी;
अगतिरूप गतिरूप विधाता, शिवविलास शुचिमय सुखदाता. ५६
पाठांतरः वीतराग बुद्धिश विषारी.