Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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भव बीजरूप रागद्वेषने, आपे कीधा दूर;
अगम अगोचर अमर विभु, आव्यो शरणे हजूररे. श्री०
पूरणचंद्र सम यशकीर्ति; मन-मधुकर अरविंद;
सेवक मागे पूर्ण कळाने, पूजीए पादारविंदरे. श्री०
श्री वीर जिनस्तवन
(शी कहुं कथनी मारी हो राजए देशी)
शी करुं कीरति तारी हो वीर! शी करुं कीरति० (टेक)
जगचिंतामणी जगतना गुरु, जगबांधव जगनाथ!
जगतचूडामणि जगतउद्धारक, जगपालक जिननाथ. हो०
जगजनसज्जन जगउपकारी, जगतवत्सल जयकार;
जगहितकारक जगजनतारक; जगतजंतु-सुखकार. हो०
जगतईश्वर जगपरमेश्वर, जगजन-रक्षणहार;
जगतभावनुं जाणे स्वरूप तुं, जगततात दुःखहार. हो०
अशरणशरण भवभयभंजन, परमदयाळ तुंही देव,
भवसिंधुमां अनाथनो नाथ तुं, करुणाबंधु जगदेव. हो०
मारा रे मुखमां एक ज जीभडी, कही न शकुं गुण तारा;
पूरणचंद्र सम कीर्ति तारी प्रभु, दास नमे पाय तारा हो०
श्री सीमंधरशांतिनाथ जिनस्तवन
(मारुं वचनए देशी)
सीमंधरनाथजीने करुं नमन हां....
शांतिनाथजीने करुं नमन हां....(टेक)

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कर्मरिपुवारक, आतम-साधक;
धर्मचक्रीने करुं नमन हां.
शांतिना करनार, भवदुःख हरनार;
पंचमचक्रीने करुं नमन हां.
सर्वभयवारक जगउपकारक;
धर्मसारथीने करुं नमन हां.
गुणगणखाणी, नाथ शिवराणी;
जगदीपकने करुं नमन हां.
दुःखिजनवत्सल भविजन-मंगल;
शासनपतिने करुं नमन हां.
दास-कलंकहारी, तुम नामे जाउं वारी;
विश्वबंधुने करुं नमन हां.
श्री जिनेन्द्रस्तवन
(कवित)
प्रथम अशोक, फूलकी वर्षा, वानी खिरहिं परम सुखकार;
चामर छत्र सिंहासन शोभित, भामंडलद्युति दिपै अपार;
दुदुंभि नाद बजत आकाशहिं, तीन भवनमें महिमा सार,
समवशरण जिनदेव सेवको, ये उतकृष्ट अष्टप्रतिहार.

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(सवैया सुंदरी)
काहेको देशदिशांतर धावत, काहे रिझावत इंद नारिंद,
काहेको देवि औ देव मनावत, काहेको शीस नमावत चंद;
काहेको सूरजसों कर जोरत, काहे निहोरत मूढमुनिंद,
काहेको शोच करै दिनरैन तूं, सेवत क्यों नहिं पार्श्वजिनंद.
(छप्पय)
देव एक जिनचंद नांव, त्रिभुवन जस जंपै,
देव एक जिनचंद, दरश जिहँ पातक कंपै;
देव एक जिनचंद, सर्व जीवन सुखदायक,
देव एक जिनचंद, प्रगट कहिये शिवनायक;
देव एक त्रिभुवन मुकुट, तास चरण नित बंदिये,
गुण अनंत प्रगटहिं तुरत, रिद्धिवृद्धि चिरनंदिये.
(कवित)
आतमा अनूपम है दीसे राग द्वेष विना,
देखो भविजीवो! तुम आपमें निहारके;
कर्मको न अंश कोऊ भर्मको न वंश कोऊ,
जाकी शुद्धताईमें, न और आप टारके;
जैसो शिवखेत बसै तैसो ब्रह्म यहां लसै,
यहां वहां फेर नाहीं देखिये विचारके;
जोई गुण सिद्धमांहि सोई गुण ब्रह्ममांहि;
सिद्धब्रह्म फेर नाहिं निश्चे निरधारके.
पाखंडी तपस्वी

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विदेहक्षेत्रस्थवर्तमानजिनविंशतिका
(१) श्री सीमंधर जिनस्तुति
(छप्पय)
सीमंधर जिनदेव, नगर पुंडरगिरि सोहै,
वंदहि सुर-नर-इन्द्र, देखि त्रिभुवन मन मोहे;
वृछ-लच्छन प्रभु चरन सरन, सबहीको राखहिं,
तरहु तरहु संसार सत्य, सत यहै जु भाखहिं;
श्रेयांसरायकुल-उद्धरन, वर्तमान जगदीश जिन,
समभाव सहित भविजन नमहिं, चरण चारु संदेह विन.
(२) श्री युगमंधर जिनस्तुति
(कवित्त)
केवल-कलपवृच्छ पूरत है मन-इच्छ,
प्रतच्छ जिनंद जुगमंधर जुहारिये;
दुदुंभि सुद्धार बाजै, सुनत मिथ्यात्व भाजै,
विराजै जगमें जिनकीरति निहारिये.
तिहुंलोक ध्यान धरै नाम लिये पाप हरै,
करै सुर किन्नर तिहारी मनुहारिये;
भूपति सुद्रढराय विजया सु तेरी माय,
पाय गज लच्छन जिनेशको निहारिये.

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(३) श्री बाहु जिनस्तुति
(सवैयाद्रुमिला)
प्रभु बाहु सुग्रीव नरेश पिता, विज्या जननी जगमें जिनकी,
मृगचिह्न विराजत जासु धुजा, नगरी है सुसीमा भली जिनकी,
शुभ केवलज्ञान प्रकाश जिनेश्वर, जानतु है सबकी जिनकी,
गनधार कहै भवि जीव सुनो, तिहुं लोकमें कीरति है जिनकी.
(४) श्री सुबाहु जिनस्तुति
(सवैया)
श्री स्वामी सुबाहु भवोदधि तारन, पार उतारन निस्तारं,
नगर अजोध्या जन्म लियो, जगमें जिन कीरति विस्तारं;
निशढिल पिता सुनंदा जननी, मरकटलच्छन तिस तारं,
सुरनरकिन्नर देव विद्याधर, करहि वंदना शशि तारं.
(५) श्री सुजात जिनस्तुति
(कवित्त)
अलिका जु नाम पावै इन्द्रकी पुरी कहावे,
पुंडरगिरि सरभर नावे जो विख्यात है;
सहस्रकिरनधार तेजतैं, दिपै अपार;
धुजापै विराजै अंधकार हू रिझात है;
देवसेन राजासुत जाकी छवि अद्भुत,
देवसेना मातु जाकै हरष न मात है;

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श्री सुजातस्वामीको प्रणाम नित्य भव्य करैं,
जाके नाम लिये कुल पातक विलात हैं. ५
(६) श्री स्वयंप्रभु जिनस्तुति
(सवैयामात्रिक)
श्री स्वयंप्रभु शशिलंछन पति तीनहुं लोकके नाथ कहावें,
मित्रभूतभूपतिके नंदन विज्या नगर जिनेश्वर आवें;
धन्य सुमंगला जिनकी जननी, इन्द्रादिक गुण पार न पावें,
भव्यजीव परणाम करतु है, जिनके चरन सदा चित्त लावें.
(७) श्री ॠषभानन जिनस्तुति
(छप्पय)
श्री ॠषभानन अरहंत, कीर्तिराजाके नंदन,
सुरनर करहिं प्रणाम, जगतमें जिनको वंदन;
वीरसेनसुतलशय, सिंहलच्छन जिन सोहै,
नगर सुसीमा जन्म देखि, भविजनमन मोहै;
अमलान ज्ञान केवल प्रगट, लोकालोक प्रकाशधर,
तल चरनकमल वंदन करत, पापपहार परांहिं पर.
(८) श्री अनंतवीर्य जिनस्तुति
(कवित्त)
श्री अनंतवीर्यसेव कीजिये अनेक भेव,
विद्यमान येही देव मस्तक नवाइये;

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तात जासु मेघराय मंगला सु कही माय,
नगरी अजोध्याके अनेक गुण गाईये.
ध्वजापै विराजै गज पेखे पाप जाय भज,
त्रिकोटनकी महिमा देखे न अघाईये.
तिहूं लोकमध्य इस अतिशै चौतीस लसै,
ऐसे जगदीश ‘भैया’ भलीभांति ध्याईये.
(९) श्री सूरप्रभ जिनस्तुति
(सिंहावलोकन छप्पय)
सूरप्रभ अरहंत, हंत करमादिक कीन्हें,
कीन्हें निज सम जीव, जीव बहु तार सु दीन्हें;
दीन्हें रवि पदवास, वास विजयामहि जाको,
जाको तात सुनाग, नाग भय माने ताको,
ताको अनंतबलज्ञानधर, धर भद्रा अवतार जी;
जिहं भावधारि भवि सेवहीं, वहि नरिंद लहि मुक्तश्री.
(१०) श्री विशाल जिनस्तुति
(सवैया)
नाथ विशाल तात विजयापति, विजयावति जननी जिनकी,
धन्य सु देश जहां जिन उपजे, पुंडरगिरि नगरी तिनकी;
लच्छन इंदु बसहि प्रभु पायें, गिनै तहां कोन सुरगनकी,
मुनिराज कहै भविजीव तरे, सो है महिमा महीमें इनकी. १०

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(११) श्री वज्रधर जिनस्तुति
(कवित्त)
अहो प्रभु पदमरथ, राजाके नंदनसु,
तेरोई सुजस तिहूंपर गाईयतु है;
केई तव ध्यान धरै, केई तव जाप करै,
केई चर्णशर्णतरै जीव पाईयतु है,
नगर सुसीमा सिधि ध्वजापैं विराजै शंख,
मातुसरस्वतिके आनंद बधायतु है;
वज्रधरनाथ साथ शिवपुरी करो कहि,
तुम दास निशदीस शीश नाईयतु है. ११
(१२) श्री चंद्रानन जिनस्तुति
(छप्पय)
चंद्राननजिनदेव सेव सुर करहिं जासु नित,
पद्मासन भगवंत, डिगत नहि एक समय चित;
पुंडरिनगरी जनम, मातु पदमावति जाये,
वृषलच्छन प्रभुचरण, भविक आनंद जु पाये;
जस धर्मचक्र आगें चलत, इतिभीति नासंत सब,
सुत वाल्मीक विचरंत जहं, तहं तहं होत सुभिक्ष तब. १२
(१३) श्री चंद्रबाहु जिनस्तुति
(मात्रिककवित)
लक्षण पद्म रेणुका जननी, नगर विनीता जिनको गांव,
तीन लोकमें कीरति जिनकी, चंद्रबाहु जिन तिनको नांव;

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देवानंद भूमिपतिके सुत, निशिवासर बंदहिं सुर पांव,
भरत क्षेत्रतैं करहि वंदना, ते भविजन पावहिं शिवठांव. १३
(१४) श्री भुजंगम जिनस्तुति
(सवैया)
महिमा मात महाबलराजा, लच्छन चंद धुजा पर नीको,
विजय नग्र भुजंगम जिनवर, नांव भलो जगमें जिनहीको;
गणधर कहै सुनो भविलोको, जाप जपो सबही जिनजीको,
जास प्रसाद लहै शिवमारग, वेग मिलै निजस्वाद अमीको. १४
(१५) श्री ईश्वर जिनस्तुति
(मात्रिककवित)
इश्वरदेव भली यह महिमा, करहि मूल मिथ्यातमनाश,
जस ज्वाला जननी जगकहिये, मंगलसैन पिता पुनि पास;
नगरी जस सुसीमा भनिये, दिनपति चर्ण रहै नित तास,
तिनको भावसहित नित बंदै, एकचित्त निहचै तुम दास. १५
(१६) श्री नेमप्रभ जिनस्तुति
(कवित)
लच्छन वृषभ पांय पिता जास वीरराय,
सेना पुनि जिनमाय सुंदर सुहावनी;
नगरी अजोध्या भली नवनिधि आवै चली,
इन्द्रपुरी पांय तली लोकमें कहावनी.

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नेमिप्रभु नाथ वानी अमृत समान मानी,
तिहूँ लोक मध्य जानी दुःखको बहावनी;
भविजीव पांय लागै सेवा तुम नित मागै,
अबै सिद्धि देहु आगै सुखको लहावनी. १६
(१७) श्री वीरसेन जिनस्तुति
(सवैया)
महा बलवंत, बडे भगवंत, सवै जिय-जंत सुतारनकौ,
पिता भुवपाल, भलो तिन भाल लह्यो निजलाल उधारनको;
पुंडरी सु वासहि रावन पास, कहै तुम दास उधारनको,
वीरसेनराय भली भानुमाय, तारो प्रभु आय विचारनको. १७
(१८) श्री महाभद्र जिनस्तुति
(सवैया)
महाभद्र स्वामी तुम नाम लिये, सीझे सब काम विचारनके,
पिता देवराज उमादे माय, भली विजया निसतारनके,
शशि सेवै आय, लगै तुम पाय भले जिनराय उधारनके,
किरपा करि नाथ गहो हम हाथ, मिलै जिन साथ तिहारनके. १८
(१९) श्री देवजस जिनस्तुति
(सवैया)
जिन श्री देवजस स्वामी, पिता श्रवभूत भनिज्जै,
लच्छन स्वस्तिक पांव, नांव तिहुं लोक गुणिज्जै;

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पावहि भविजन पार, मात गंगा सुखधारहिं,
नगर सुसीमा जन्म आय, मिथ्यामति टारहिं,
प्रभु देहिं धरम उपदेश नित सदा बैन अमृत झरहिं;
तिन चरणकमल वंदन करत, पापपुंज पंकति हरहिं. १९
(२०) श्री अजितवीर्य जिन स्तुति
(छप्पय)
वर्तमान जिनदेव पद्म, लच्छन तिन छाजै,
अजितवीर्य अरहंत, जगतमें आप विराजै;
पद्मासन भगवंत ध्यान इक निश्चय धारहि,
आवहि सुरनरवृंद, तिन्हैं भवसागर तारहि,
नगर अजोध्या जन्म जिन, मात कननिका उरधरन;
तस चरनकमल वंदत भविक जै जै जिन आनंदकरन. २०
(दोहा)
वर्तमान वीसी करी, जिनवर वंदन काज;
जे नर पढैं विवेकसों, ते पावहिं शिवराज. २१
वर्तमानवीसतीर्थंकरसमुच्चयस्तुति
(कवित)
सीमंधर जुगमंद्र बाहु ओ सुबाहु,
संजात स्वयंप्रभु नांव तिहुं पन ध्याईये;
ॠषभानन अनंतवीर्य विशाल सूरप्रभ,
वज्रधरनाथके चरण चित्त लाईये.

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चंद्रानन चन्द्रबाहु श्री भुजंगम ईश्वर,
नेमिप्रभु वीरसेन विद्यमान पाईये;
महाभद्र देवजस अजितवीरज ‘भैया’,
वर्तमानवीसको त्रिकाल सीस नाईये. २२
श्री तीर्थंकरस्तुति
(दोहा)
श्री जिनदेव प्रणाम कर, परम पुरुष आराध;
कहों सुगुण जयमालिका, पंच करणरिपु साध.
(पद्धरि छंद)
जय जय सु अनंत चतुष्टनाथ,
जय जय प्रभु मोक्ष प्रसिद्ध साथ;
जय जय तुम केवलज्ञान-भास,
जय जय केवलदर्शन-प्रकाश.
जय जय तुम बल जु अनंत जोर,
जय जय सुख जास न पार ओर,
जय जय त्रिभुवन-पति तुम जिनंद,
जय जय भवि-कुमदनि पूर्ण चंद.
जय जय तम नाशन प्रगट भान,
जय जय जित इद्रिन तूं प्रधान;
जय जय चारित्र सु यथाख्यात,
जय जय अघनिशि नाशन प्रभात.

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जय जय तुम मोह निवार वीर,
जय जय अरिजीतन परम धीर;
जय जय मनमथमर्दन मृगेश,
जय जय जम जीतनको रसेश.
जय जय चतुरानन हो प्रतक्ष,
जय जय जग-जीवन सकल रक्ष;
जय जय तुम क्रोध कषाय जीत,
जय जय तुम मान हर्यो अजीत.
जय जय तुम मायाहरन सूर,
जय जय तुम लोभनिवार मूर;
जय जय शत इंद्रन बंदनीक,
जय जय अरि सकल निकंदनीक.
जय जय जिनवर देवाधिदेव,
जय जय तिहुंयन भवि करत सेव;
जय जय तुम ध्यावहिं भविक जीव,
जय जय सुख पावहिं ते सदीव.
श्री जिनेन्द्रस्तवन
(रागमेरी भावना)
भविक तुम वंदहु मनधर भाव,
जिन-प्रतिमा जिनवरसी कहिये. भविक०

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जाके दरस परमपद प्रापति,
अरु अनंत शिवसुख लहिये. भविक०
निज स्वभाव निरमल ह्वै निरखत,
करम सकल अरि घट दहिये;
सिद्ध समान प्रगट इह थानक,
निरख निरख छबि उर गहिये. भविक०
अष्ट कर्मदल भंज प्रगट भई,
चिन्मूरति मनु बन रहिये;
इहि स्वभाव अपनो पद निरखहु,
जो अजरामर पद चहिये. भविक०
त्रिभुवन माहि अकृत्रिम कृत्रिम,
वंदन नितप्रति निरवहिये;
महा पुण्यसंयोग मिलत है,
‘भईया’ जिन प्रतिमा सरदहिये. भविक०
श्री जिनवाणीस्तवन
(मेरी भावना)
जिनवाणी को को नहिं तारे, जिन०टेक
मिथ्याद्रष्टि जगत निवासी, लही समकित निज काज सुधारे,
गौतम आदिक श्रुतिके पाठी, सुनत शब्द अघ सकल निवारे; जिन०

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परदेशी राजा छिनवादी, भेद सुतत्त्व भरम सब टारे,
पंचमहाव्रत धर तू ‘भैया’ मुक्तिपथ मुनिराज सिधारे.
श्री जिनवाणीस्तवन
(रागमेरी भावना)
जिनवाणी सुनि सुरत संभारे, जिन०टेक
सम्यग्द्रष्टि भवननिवासी, गह वृत केवल तत्त्व निहारे. जिन०
भये धरणेन्द्र पद्मावति पलमें, जुगलनाग प्रभु पास उबारे;
बाहुबलि बहुमान धरत है, सुनत विनत शिवसुख अवधारे. जिन०
गणधर सबै प्रथम धुनि सुनिके; दुविध परिग्रह संग निवारे,
गजसुकुमाल वरस वसुहीके, दिक्षा ग्रहत करम सब टारे. जिन०
मेघकुंवर श्रेणिकको नंदन, वीरवचन निजभवहिं चितारे;
औरहु जीव तरे जे ‘भैया’, ते जिनवचन सबै उपगारे. जिन०
श्री जिनवाणीस्तवन
(छप्पय)
बंदहु ॠषभ जिनेन्द्र, अजित संभव अभिनन्दन;
सुमति सु पद्म सुपार्श्व; बहुरि चन्द्रप्रभ वंदन;
सुविधि शीतल श्रेयांश, वासुपूजहिं सुखदायक,
विमल अनंत रु धर्म, शान्ति कुंथु जु शिवनायक;
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अर मल मुनिसुव्रत नमत, पाप पुंज पंकति हरिय,
नमि नेम पार्श्व जिन वीर कहं, भवि त्रिकाल वंदन करिय. १
(कवित्तमनहर)
मिथ्यागढ भेद थयो अंधकार नाश गयो,
सम्यक् प्रकाश लयो, ज्ञानकला भासी है;
अणुव्रत भाव धरें महाव्रत अंगी करे,
श्रेणीधारा चढे कोई प्रकृति विनासी है;
मोहको पसारो डारि घातियासु कर्म टारि,
लोकालोकको निहारि भयो सुखरासी है;
सर्वही विनाश कर्म, भयो महादेव पर्म,
वंदै भव्य ताहि नित लोक अग्रवासी है.
नेकु राग द्वेष जीत भये वीतराग तुम,
तीनलोक पूज्यपद येहि त्याग पायो है;
यह तो अनूठी बात तुम ही बताय देहु,
जानी हम अबहीं सुचित्त ललचायो है;
तनिकहू कष्ट नाहिं, पाईये अनन्त सुख,
अपने सहजमांहिं आप ठहरायो है;
यामें कहा लागत है, परसंग त्यागतही,
जारि दीजे भ्रम शुद्ध आपही कहायो है.
वीतराग देव सो तो बसत विदेहक्षेत्र,
सिद्ध जो कहावै शिवलोक मध्य लहिये;
आचारज उवझाय दुहिमें न कोऊ यहां,
साधु जो बताये सो तो दक्षिणमें कहिये;

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श्रावक पुनीत सोऊ विद्यमान यहां नाहिं,
सम्यक्के संत कोऊ जीव सरदहिये;
शास्त्रकी शरधा तामें बुद्धि अति तुच्छ रही,
पंचम समैमें कहो कैसे पंथ गहिये.
तूही वीतराग देव राग द्वेष टारि देख,
तूही तो कहावै सिद्ध अष्ट कर्म नासतैं;
तूही तो आचारज है आचरै जु पंचाचार,
तूही उवझाय जिनवाणीके प्रकाशतैं;
परको ममत्व त्याग तूही है सो ॠषिराय,
श्रावक पुनीत व्रत एकादश भासतें;
सम्यक् स्वभाव तेरो शास्त्र पुनि तेरी वाणी,
तूही ‘भैया’ ज्ञानी निजरूपके निवासतें.
श्री जिनगुणमाला
(दोहा)
तीर्थंकर त्रिभुवन तिलक तारक तरन जिनंद;
तास चरन वंदन करौं, मनधर परमानंद.
गुण छीयालिस संयुगत, दोष अठारह नाश;
ये लक्षण जा देवमें, नित प्रति वंदों तास.
(चौपाई)
दश गुण जासु जनमतैं होय, प्रस्वेदादिक दोष न कोय,
निर्मलता मलरहित शरीर, उज्वल रुधिर वरण जिन खीर.
वज्र वृषभ नाराच प्रमान, सम सु चतुर संस्थान बखान;
शोभन रूप महा दुतिवन्त, परम सुगन्ध शरीर वसंत.

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सहस अठोत्तर लच्छन जास, बल अनंत वपु दीखै तास;
हितमित वचन सुधासे झरैं, तास चरन भवि वंदन करैं.
दश गुण केवल होत प्रकाश, परम सुभिक्ष चहूं दिश भास;
द्वयसौ जोजन मान प्रमान, चलत गगनमें श्री भगवान.
वपुतैं प्राणिघात नहि होय, आहारादिक क्रिया न कोय;
विन उपसर्ग परम सुखकार, चहुंदिश आनन दीखहिं चार.
सब विद्या स्वामी जग वीर, छाया वर्जित जासु शरीर;
नख अरु केश बढैं नहि कहीं, नेत्र पलक पल लागे नहीं.
चौदह गुण देवन कृत होय, सर्व मागधी भाषा सोय;
मैत्री भाव जीव सब धरैं, सर्वकाल तरु फूलन झरैं.
दर्पणवत निर्मल ह्वै मही, समवशरण जिन आगम कही;
शुद्ध गंध दक्षिण चल पौन, सर्व जीव आनंद अनुभौन. १०
धूलि रु कंटक वर्जित भूमि, गंधोदक बरषत है झूमि;
पद्म उपरि नित चलत जिनेश, सर्व नाज उपजहिं चहुं देश. ११
निर्मल होय आकाश विशेष, निर्मल दशा धरतु है भेष;
धर्मचक्र जिन आगे चलैं, मंगल अष्ट पाप तम दलै. १२
प्रातिहार्य वसु आनँदकंद, वृक्ष अशोक हरै दुःख द्वंद;
पुहुप वृष्टि शिव सुखदातार, दिव्यध्वनि जिन जै जै कार. १३
चौसठ चँवर ढरहिं चहुंओर, सेवहिं इंद्र मेघ जिन मोर;
सिंहासन शोभन दुतिवंत, भामंडल छवि अधिक दिपंत. १४

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वेदी माहिं अधिक द्युति धरै, दुदुंभि जरा मरण दुःख हरै;
तीन छत्र त्रिभुवन जयकार, समवशरणको यह अधिकार. १५
(दोहा)
ज्ञान अनंतमय आतमा, दर्शन जासु अनंत;
सुख अरु वीर्य अनंत बल, सो वंदों भगवंत. १६
इन छ्यावीसन गुणसहित, वर्तमान जिनदेव;
दोष अठारह नाशतैं करहिं भविक नित सेव. १७
(चौपाई)
क्षुधा त्रिषा न भयाकुल जास, जनम न मरन जरादिक नाश;
इंद्रीविषय विषाद न होय, विस्मय आठ मदहि नहि कोय. १८
राग रु दोष मोह नहि रंच, चिंता श्रम निद्रा नहि पंच;
रोग विना परस्वेद न दीस, इन दूषन विन है जगदीश. १९
(दोहा)
गुण अनंत भगवंतके, निहचै रूप बखान;
ये कहिये व्यवहारके, भविक लेहु उर आन. २०
‘भैया’ निजपद निरखतैं, दुविधा रहै न कोय;
श्री जिनगुणकी मालिका, पढें परम सुख होय. २१
श्री पंचपरमेष्ठीनमस्कार
(दोहा)
प्रातः समय श्री पंचपद वंदन कीजे नित्त;
भाव भगति उर आनिकै, निश्चय कर निज चित्त.

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(चौपाई १६ मात्रा)
प्रातहिं उठि जिनवर प्रणमीजै, भावसहित श्री सिद्ध नमीजै;
आचारज पद वंदन कीजै, श्री उवझाय चरण चित्त दीजै.
साधु तणा गुण मन आणीजै, षट्द्रव्य भेद भला जानीजै;
श्री जिनवचन अमृतरस पीजै, सब जीवनकी रक्षा कीजै.
लग्यो अनादि मिथ्यात्व वमीजै, त्रिभुवनमांही जिम न पसीजै;
पांचौं इन्द्री प्रबल दमीजै, निज आतम रस मांही रमीजै.
परगुण त्याग दान नित कीजै, शुद्धस्वभाव शील पालीजै;
अष्ट करम तज तप यह कीजै, शुद्धस्वभाव मोक्ष पामीजै.
(दोहा)
इहविधि श्री जिनचरण नित, जो वंदत धर भाव;
ते पावहिं सुख शाश्वते, ‘भैया’ सुगम उपाव.
श्री नंदीश्वरद्वीपकी जिनप्रतिमास्तुति
(दोहा)
वंदों श्री जिनदेवको, अरु वंदों जिनवैन;
जस प्रसाद इह जीवके, प्रगट होय निज नैन.
श्री नंदीश्वर-द्वीपकी, महिमा अगम अपार;
कहूं तास जयमालिका, जिनमतके अनुसार.
(चौपाई)
एक अरब तिरेसठ कोडि, लख चौरासी ता परि जोडि;
एते योजन महा प्रमान, अष्टम द्वीप नंदीश्वर जान. ३