Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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एहवो भास्यो के आतम आपणो,
नमिजिननां सुणी वाच....जिणंदजी.
कीर्ति वाधी रे देश देशांतरे,
सेवक कहे जिन साच..जिणंदजी...नमि०
श्री अनंत जिनस्तवन
(दीठां लोयण आजराग)
गुण अनंत अरिहंतना रे, जिनपति तेज अनंत;
सुख अनंत सहजे दीये रे, सेवंतां भगवंत,
अनंतजी आवो अधिक उछाह; मुज मनमंदिरमांहि...अ०
मुख अनंत जो मुज होये रे, मुखे मुखे जीभ अनंत;
गुण अनंतना बोलतां रे, तोहे न आवे अंत....अनंत०
ज्ञान अनंत मुज दीओ रे, दरिशण रिद्धि अनंत;
भक्त भणे तुम्हथी हजो रे, मुजने शक्ति अनंत.....अ०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(रामचंद्रने बाग चंपो मोरी रह्योरीराग)
स्वामी सीमंधरजिणंद, शमरस कुंभ भर्योरी;
तामेथी लव एक, दीजे काज सरेरी.
नवि चाहुं घृतपूर, साकरपाक भलोरी;
चिंतामणि कामधेनु, सुधारस साखि फळोरी.

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राज्य समा स्वर्गभोग, ते सवि छार गणुंरी;
इंद्र चंद्र नागेंद्र, दुःखिया तेह भणुंरी.
सुखिया ते मुनिराय, उपशम सार भजेरी;
पर-परिणत-परिणाम, कारण जेह तजेरी.
उपशम रस तवि होय, निज शुद्ध ध्यान धरेरी;
मिथ्यात विषयनो त्याग, जिनवच अमीय सिंचेरी.
भक्तवत्सल भगवंत, सेवक दुःख टळेरी;
श्री जिनराज प्रभु पाय, सेवा साच फळेरी.
श्री शांतिनाथ जिनस्तवन
(भवियां अजीतवीर्य जिन वंदोराग)
शांतिजिणंद शांतिकर स्वामी, पामी गुण महिधामी;
निःकामी केवल आरामी, शिवपरिणति परिणामी रे....
प्राणी शांति नमो गुणखाणी.
अंतरथी प्रभु नमन करीने, शुद्धातम मन भावे,
अमल आनंदी सुमति मनावे, कलुषित कुमति रिसावे रे..
प्राणी०
आतम जे परमातम परखे, ते परमातम परसे;
तेहि ज परमातमता पामे, परमातमने दरसे रे......
प्राणी०

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मुज आतम परमातम परस्यो, परमातमता वरसे;
लोह लोहता मूकी कंचन, थाये पारस फरसे रे...
प्राणी०
परमातम थई पोते रमस्युं निजपद जिनपद रागे;
श्री जिनदास शांति जिन आगै, परमातमता मागे...
प्राणी०
श्री शीतळ जिनस्तवन
(धर्म जिनेश्वरराग)
सहेजे शीतळ शीतळजिन तणी,
शीतळ वाणी रसाळ जिणंदजी;
वदन चंद्र बरास अधिक सुणी,
समजे बाळगोपाळ जिणंदजी....सहेजे०
स्वरूप प्रकाशे रे संशय नवि राखे,
दाखे भवजळ दोष जिणंदजी;
रागादिक मोषक दूरे हरे,
करे संयमनो रे पोष जिणंदजी.....सहेजे०
सुर-नर-तिरिगण एकाग्रथी,
निसुणे हर्ष अपार जिणंदजी;
वैर विरोध न भूख तृषा नहीं,
वळी नहीं निद्रा लगार जिणंदजी..सहेजे०

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सहुने सुणता रे हर्ष वधे घणो,
उत्तम अधिक उच्छाह जिणंदजी;
तृपति न पामे रे स्वादुपणा थकी,
जिहां लगी भाखेरे नाह जिणंदजी..सहेजे०
ताप मिटे सवि विषयकषायनो,
शीतळ हुवे भवि मन्न जिणंदजी;
अमृत पान तृपति जिम सुख लहे,
वहे जनम धन्य धन्य जिणंदजी.....सहेजे०
भवदव ताप निवारो नाथजी,
द्यो शीतळता रे सार जिणंदजी;
श्री जिनराज तणो दास कहे,
जिम लहु सुख अपार जिणंदजी.....सहेजे०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(म्हारो मुझरो ल्योनेराग)
श्री सीमंधर जिन नयणे निरखी, आतमथी उलसियो;
नयणे निरख्यां आतम उलस्यै, अचरिज मन वसियो...
प्रभुजी सीमंधर जिन महाराज, आज मैं नयणे देख्या.
श्री सीमंधर जिन नयणे दीठा, संशय न रहे लेश;
अंधकार तिंहा मूल नहीं जिहां, सूरज किरण प्रवेश...प्र०
लौकिक द्रष्टे नयणे निरख्यां, वस्तु ग्रहण नवि थायै;
लोकोत्तर आगम द्रष्टें करी, प्रभुता प्रगट जणायै......प्र०

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प्रभु निरख्यां जे आतम परखै, ते उत्तम अविनाशी;
आतम परखे प्रभु परखाये, ते जाणो निजवासी......प्र०
आगम द्रष्टै नयणै निरखै, ते प्रभु प्रभुता निरखी;
श्री गुरुराज कृपाए जिन देख्यां, विकासित हियमैं हरखी...
प्रभुजी०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(निरखी शांतिजिणंद भविकजन हरखो रेराग)
ताहरी अजब शी जोगनी मुद्रारे, लागे मुने मीठी रे;
ए तो टाळे मोहनी निद्रा रे, प्रत्यक्ष दीठी रे.
लोकोत्तरथी जोगनी मुद्रा,
वाल्हा मारा, निरुपम आसन सोहे;
सरस रचित शुक्लध्याननी धारे,
सुरनरनां मन मोहे रे.....लागे०
अष्टभूमि रतनसिंहासन बेसी,
वाल्हा मारा, चिहुं दिशे चामर ढोळे;
अरिहंत पद प्रभुतानो भोगी,
तो पण जोगी कहावे रे....लागे०
अमृत झरणी मीठी तुज वाणी,
वाल्हा मारा, जेम अषाढो गाजे;

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कान मारग थई हियडे पेसी,
संदेह मनना भाजे रे.....लागे०
कोडी गमे ऊभा दरबारे,
वाल्हा मारा, जय मंगळ सुर बोले;
त्रण भुवननी रिद्धि तुज आगे;
दीसे इम तरणा तोले रे......लागे०
भेद लहुं नहिं जोग जुगतिनो,
वाल्हा मारा, सीमंधरजिनजी बतावो;
प्रेम शुं सेवक कहे करुणा,
मुज मन मंदिर आवो रे....लागे०
श्री जिनराजस्तवन
(चंद्रबाहु जिन सेवनाराग)
सुविहितकारी रे साहिबा, सुंदर रूप निधान;
तुज मुज रीझनी रीझमां, उपजे आतमज्ञान....सु०
आकर्षी स्वरूप ताहरुं, लक्षण लक्षित देह;
प्रेम प्रगटता रे आत्मनी, वधती वेलनी जेम....सु०
किहां उपनो किहां नीपनो, रूपातीत सभाव;
अचरिज ए मुज वातनो, कहोने श्री जिनराय....सु०
पूरवगति रे प्रयोगथी, जोग मिल्यो छे रे आय;
तो भेदभाव न राखीए राखी न आवे हो दाय.....सु०

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कामित पूरण सुरतरू, मूरत मोहनवेल;
साचो जाणी में सेवियो, जिम घन चातक मेह. सु०
करकमले जिन केतकी, भ्रमर परे रस लीन;
भेद्यो चतुर ते आतमा, थई रह्यो तुज आधीन. सु०
श्री शांतिनाथस्तवन
(अजित जिणंदशुं प्रीतडीए राग)
शांतिजिणेसर वंदना, पूर्णांनंदी हो शाश्वत सुखस्थान.....के
अप्रतिहत शासनधारा, शिरे धरता हो तिहुंयण जन आण....के
शांति०
निज्जशक्ति प्रगटी करी, परसत्ता हो निजथी करी दूर.....के
सादि अनंत अक्षयस्थिति, शुद्ध लक्ष्मी हो भोगी भरपूर....के
शांति०
कर्म्म तणी ए वर्ग्गणा, नासंतां हो निर्म्मल निर्व्वाण.....के
केवलनाण दिवायरू, आतमज्योते हो प्रगट्या गुणखाण....के
शांति०
मनमंदिर मेळापथी, मुज शक्ति हो तुज सरखी थाय......के
सेवक करे सेवना, साध्य सिद्धि हो साधक परखाय......के
शांति०

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श्री सुपार्श्वनाथ जिनस्तवन
(शांति सुरत तमारी जोतांराग)
आज हो परमारथ पायो,
ग्यानी गुरु अरिहंत बतायो;
राग ने द्वेष तणे वस ना’यो,
परुमपुरुष में सोहिज ध्यायो. आज०
करजोडी जो को गुण गावे,
कडुए वचने कोई मल्हावे;
तुं अधिको ओछो न जणावे,
समतासागर नाम कहावे. आज०
साचो सेवक जाणी न मिळीओ,
दुरिजन देखी अलगो न टळिओ;
अकल पुरुष जिण विधि ओळखीओ,
सहज सरूपी तिणविध फळीओ. आज०
झाली हाथ न को तुं तारे,
फेरे कोई न तुं संसारे;
तुं किम भाव कुभाव विचारे,
फळ इम संगति सारासारे. आज०
एक नजर सहु को पर राखे,
बीजो कुण परमेश्वर पाखे;

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श्री जिनराज जिनागम साखे,
सेवक सुपास तणो एम भाखे. आज०
श्री महावीर जिनस्तवन
(प्रभुजी महेर करीने आज काज हमारा सारोराग)
आज म्हारा प्रभुजी महेर करीने, सेवक साहमुं निहाळो;
करुणासागर महेर करीने, अतिशय सुख भूपाळो;
प्रभुजी म्हेर करो हो राज, सेवक कहीने बोलावो.
भगतवछल शरणागत पंजर, त्रिभुवननाथ दयाळो;
मैत्रीभाव अनंत वहे अहनिश, जीव सयल प्रतिपाळो;
प्रभुजी०
त्रिभुवन दीपक जिपक अरिगण, अविघट ज्योति प्रकाशी;
महासारथी निर्यामक कहिये, अनुभव रस सुविलासी;
प्रभुजी०
वादी तम हर तरणी सरीखा, अनेक बिरूदना धारी;
जीत्या प्रतिवादी निज मतथी, सकलज्ञायक यशकारी;
प्रभुजी०
यज्ञकारक चउ वेदना धारक, जीवादि सत्ता न धारे,
ते तुज मुख दिनकर निरखणथी, मिथ्यातिमिर परजाले;
प्रभुजी०

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इलीका भमरी न्याये जिनेसर, आप समान तें कीधा;
इम अनेक यश त्रिशलानंदन, त्रिभुवन मांहे प्रसिधा;
प्रभुजी०
मुज मन गिरिकंदरमां वसीओ, वीर चरम जिनसिंह;
हवे कुमत मातंगना गणथी, त्रिविध योगे मिटि बीह;
प्रभुजी०
अति मन रागे शुभ उपयोगे, गातां जिन जगदीश;
श्री जिनराज चरण सेवी लहे, प्रतिदिन सयल जगीश;
प्रभुजी०
श्री पार्श्व जिनस्तवन
(शांति जिन एक मुज विनतिराग)
पास प्रभु वंछित पूरियै; चूरियै कर्मनी राश रे;
दासने फल सुख दीजियै, एहवी दासनी आश रे.
पास०
अमित सुख मोक्षनी प्राप्त जे, ते सफली मुझ आश रे;
तेह विण आश सफली नहीं, एम करजोड कहे दास रे.
पास०
एहवा मोक्ष सुख पामवा, हुवे जेह उपाय रे;
तेह हवे सहज सुभावथी, कहो पास जिनराय रे.
पास०

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ज्ञान स्थिरता थकी मोक्षनी, प्राप्तिनी, सिद्धि तूं जाण रे;
स्वमुख श्री जिनवर उपदिशी, इसी आगम वाण रे.
पास०
एहवुं आगम अनुसरी, धरे सुमति मतिमंत रे;
ते शिव सुख पदवी वरे, करे कर्मनो अंत रे.
पास०
श्री जिनराज प्रभु आगळे, करी प्रश्न अरदास रे;
भव्य भणी सुख आलिवा, कर्यो वचन प्रकाश रे.
पास०
❑ ❖ ❑
श्री सीमंधरदेव जिनस्तवन
(दीठो सुविधिजीणंद समाधि रसे भर्यो हो लालराग)
श्री सीमंधर जिनराज के आश सफळ करो रे, के आश०
दास तणी अरदास सदा दिलमें धरो रे, के सदा०
बपईओ जिम जलधर विण जाचे नहि रे, के विण०
तिम तुम विण हुं ओर न जाचुं ए सहि रे, के जाचुं०
तुम उपर एकतारी करीने हुं रह्यो रे, के करी०
साहिब तुं मुज एक में अवर न संग्रह्यो रे, के अव०
सेवानी पण चूक कदा पडती नथी रे, के कदा०
रिद्धि अनंत खजाने खोट पण को नथी रे, के खोट०
नीकट भव्यता अछे प्रभु माहरी रे, के अछे०
ते जाणुं निरधार कृपा लही ताहरी रे, के कृपा०
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जिनवर तुज विरह विलंब विचे करे रे, के विचे०
संघयणादिक दोष तणो अंतर धरे रे, तणो०
पण ते भावे काम ए वातनी वात छे रे; के वात०
सेवक किम होये दूर जे खाना जाति छे रे, के खाना०
भोळवीया नवि जाय के, जे तुम्हे शिखव्या रे, के जे०
पहिला हीत देखाडी जेहने हेळव्या रे, के जेह०
ते अलगा किम जाय करुणा करो नाथजी रे, के करु०
वंछित आपी आश सफळ करो तेहनी रे, के स०
ज्ञानानंदी प्रभु चरण सेवा नित दीजीये रे; के सेवा०
सहजे प्रगट स्वभाव, अधिक हवे कीजीये रे, के अ०
❋ ❀ ❋
श्री अभिनंदन जिनस्तवन
(रामचंद्रने बाग चंपो मोरी रयोरीराग)
अभिनंदन जिनराज आणी भाव सुणोरी,
प्रणमुं तुमचा पाय सेवक करी आपणोरी;
भव भय सागर तार साहेब सोहामणोरी,
सुरतरु जास प्रसन्न केम होय ते दुमणोरी.
भक्तवच्छल जिनराज श्रमणे जेह सुण्योरी,
तेहशुं धर्मस्नेह सहज स्वभाव बन्योरी;
उपशमवंत अथाह तोही मोह हण्योरी,
रतिपति दुर्धर जेह दुश्मन तें न गण्योरी.

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अक्षय लहे फल तेह जेहशुं हेज वहेरी,
दोहग दुरगति दुःख दुश्मन भीति दहेरी;
भव भव संचित पाप क्षणमां तेह हरेरी,
एम महिमा महीमांहि सर्वथी केम कहेरी.
सायर भळीउं बिंदु होवे अक्षय पणेरी,
तेम विनति सुप्रमाण साहिब जेह सुणेरी,
अनुभव भवननिवास आपो हेज घणेरी,
ज्ञानविमल सुप्रकाश प्रभु गुण रास थुणेरी.
श्री जिनराजस्तवन
(पंथडो नीहाळुं रे बीजा जिनतणो रेराग)
आणा वहीये रे श्री जिनवर तणी रे, जिम न पडो संसार;
आणा विण रे करणी शत करे रे, नवि पामे भव पार.
आ०
जीव रखोपू रे संयम तप करे रे, उर्द्धतुंड आकाश;
शीतल पाणी रे हेम अति सहे रे, साधे योग अभ्यास.
आ०
देवनी पूजा भगति अति घणी रे, करता दीसे विशेष;
आणा लोपी निज मत स्थापना रे, न लहे आतम लेश.
आ०

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आणा ताहरी रे उभय स्वरूपनी रे, उत्सर्ग ने अपवाद;
व्यवहार शोभे रे निश्चयनय थकी रे, स्थिरता ज्ञान सुवाद.
आ०
सुंदर जाणी रे निज मति आचरे रे, नहि सुंदर निरधार;
उत्तम पासे रे मनीषि पाधरी रे, जो जो ग्रंथ विचार.
आ०
धन ते कहीए रे नर नारी सदा रे, आसन्नसिद्धक जाण;
ज्ञाता श्रोता रे अनुभवी संवरी रे, माने जे तुज आण.
आ०
दोय कर जोडी मांगु एटलुं रे, आणा भव भव भेट;
मुजने दीजे रे आतम उज्वळता रे, आणा भव लच्छि बेट.
आ०
श्री अजितनाथ जिनस्तवन
(शांति जिन एक मुज विनतीराग)
अजित जिन तुज मुज अंतरो, जोतां दीसे न कोय रे;
तुज मुज आतम सारीखो, सत्ता धर्मथी होय रे.
अजित०
ज्ञान दर्शन चरण आदि देई, गुण अछे जेह अनंत रे;
असंख्य प्रदेश वळी सारीखा, ए छे इणि परे तंत रे.
अजित०

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एटलो अंतर पण थयो, आविरभाव तिरोभाव रे,
आविरभावे गुण नीपना, तिणे तुज रमण स्वभाव रे.
अजित०
रागद्वेषादि विभावनी, परणती परभावे रे;
ग्रहण करतो करे पर गुण तणो, प्राणी एह तिरोभावे रे.
अजित०
एह अंतर पड्यो तुज थकी, तेने मन घणुं दुःख रे;
भीख मांगे कुण धन छते, छते आहार कुण भूख रे.
अजित०
तुज अवलंबने आंतरो, टळे माहरे स्वाम रे;
अचल अखंड अगुरुलहु, लहे निरवद्य ठाम रे.
अजित०
जे अवेदी अखेदी पणे, अलेशी ने अजोगी रे;
उत्तम पद वर पामीने थाये चेतन भोगी रे.
अजित०
श्री सिद्धस्तुति
(रागमनमोहन जिनराया)
सिद्धिए नमो सिद्ध अनंता, अने हो मारा व्हाला रे
सिद्धिए नमो०

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वरणादिक चउ अळगा कीधा, षट संठाण नहीं परसिद्धा;
एतो सादि-अनंत स्थिति सिद्धा रे..........सिद्धि०
चिद् अवगाहनमां जे ठाया, देहातीत ते सिद्ध कहाया;
एतो चिदानंद लय पाया रे..........सिद्धि०
अनंत ज्ञान दरशन सोहाया, अव्याबाध सुखे वळी ठाया;
एतो क्षायिक समकित पाया रे..........सिद्धि०
एक समय सग राज सधाया, लोक शिखर फरसीने ठाया;
एतो अज अविनाशी कहाया रे.........सिद्धि०
अरूपी अक्षयस्थिति जास वखाणी, अगुरुलघु अवगाहना जाणी;
एतो अनंत वीरजनी खाणी रे..........सिद्धि०
आप स्वरूपे जेह सरूपी, पुद्गल त्यागे वरते अरूपी;
एतो नहि नहि रूपारूपी रे............सिद्धि०
सकल सुरासुर सुख समुदाया, तेहथी भिन्न अनंतुं सुख जे पाया;
एतो वचनातीत कहाया रे..........सिद्धि०
सिद्ध निरंजनना गुण गावो, परमानंद महोदय पावो;
थिर तन मन करीने ध्यावो रे..........सिद्धि०
संतजनो कहे सिद्धनुं ध्यान, ध्याईए तत्पर थई एकतान;
ते होये सिद्ध भगवान रे..........सिद्धि०

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श्री जिनेंद्रस्तवन
(हरिगीतछंद)
सर्व सुरेन्द्रोना नमेला मुकुट त्हेंना जे मणि,
त्हेनां प्रकाशे झळहळे पदपीठ जे त्हेना धणी;
आ विश्वनां दुःखो बधांये छेदनारा हे प्रभु!
जय जय थजो जगबन्धु तुम एम सर्वदा इच्छुं विभु.
वीतराग हे कृतकृत्य भगवन्! आपने शुं विनवुं!
हुं दास छुं महाराज जेथी शक्तिहीन छतां स्तवुं;
शुं अर्थीवर्ग यथार्थ स्वामीनुं स्वरूप कही शके?
पण प्रभो! पूरी भक्ति पासे युक्तिओ ए ना घटे.
हे नाथ! निर्मल थई वस्या छो आप दूरे मुक्तिमां,
तोये रह्या गुण ओपता मुज चित्तरूपी शक्तिमां;
अतिदूर एवो सूर्य पण शुं आरसीना संगथी,
प्रतिबिंबरूपे आवी अहीं उद्योतने करतो नथी!
क्यारे प्रभो संसारकारण सर्व ममता छोडीने,
आज्ञा प्रमाणे आपनी मन तत्त्वज्ञाने जोडीने;
रमीश आत्म विषे प्रभो निरपेक्षवृत्ति थई सदा,
तजीश इच्छा मुक्तिनी पण सन्त थईने हुं कदा?
निःसीम करुणाधार छो, छो शरण आप पवित्र छो,
सर्वज्ञ छो निर्दोष छो ने सर्व जगना नाथ छो;

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हुं दीन छुं ने झंखतो प्रभु शरण आव्यो आपने,
आ अविरतिना भिल्लथी रक्षो मने रक्षो मने.
प्रभु देवना पण देव छो वळी सत्य शंकर छो तमे,
छो बुद्ध ने आ विश्वत्रयने छो तमे नायकपणे;
अधर्मनां कार्यो बधां दूरे करीने चित्तने,
जोडुं समाधिमां जिनेश्वर शांत थई हुं जे समे.
आज्ञारूपी अमृतरसोना पानमां प्रीति करी,
पामीश परब्रह्मे रति क्यारे विभावो विसरी?
सम शत्रु मित्र विषे बनी न्यारो थई परभावथी,
रमीश सुखकर संयमे क्यारे प्रभो आनंदथी?
श्री जिनेंद्रस्तवन
(हरिगीतछंद)
गतदोष गुणभंडार जिनजी देव म्हारे तुं ज छे,
सुरनर सभामां वर्णव्यो जे धर्म म्हारे ते ज छे;
एम जाणीने पण दासनी मत आप अवगणना करो,
आ नम्र म्हारी प्रार्थना स्वामी तमे चित्ते धरो.
तुम पादपद्म रमे प्रभो नित जे जनोनां चित्तमां,
सुरइन्द्र के नरइन्द्रनी पण ए जनोने शी तमा?
त्रण लोकनी पण लक्ष्मी एने सहचरी पेठे चहे,
शुभ सद्गुणोनो गंध एना आत्ममांहे महमहे.

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मुज नेत्ररूप चकोरने तुं चन्द्ररूपे सांपड्यो,
तेथी जिनेश्वर आज हुं आनंदउदधिमां पड्यो;
जे भाग्यशाळी हाथमां चिंतामणि आवी चडे,
कई वस्तु एवी विश्वमां जे तेहने नव सांपडे?
हे नाथ! आ परभावनी व्याधी सहित एवा मने,
मुक्तिपुरीमां लई जवाने जहाजरूपे छो तमे;
शिवरमणीना शुभ संगथी अभिराम एवा हे प्रभो!
मुज सर्व सुखनुं मुख्य कारण छो तमे नित्ये विभो.
ते धन्य छे कृतपुण्य छे चिंतामणि तेने करे,
वाव्यो प्रभु! निजकृत्यथी सुरवृक्षने एणे गृहे;
हे नाथ! निःसंगी थई चळचित्तनी स्थिरता करी,
एकान्तमां बेसी करीने ध्यानमुद्राने धरी.
(शार्दूलविक्रीडित)
पाम्यो छुं बहु पुण्यथी प्रभु! तने त्रैलोक्यना नाथने,
सद्गुरुजी समान साक्षी शिवना नेता मळ्या छे मने;
एथी उत्तम वस्तु कोई न गणुं ज्हेनी करुं मागणी,
मागुं आदरवृद्धि तोय तुजमां ए हार्दनी लागणी. ६
आत्मकल्याणकारी विचारणा
(शार्दूलविक्रीडित छंद)
साक्षात् श्री जिनदेवने निरखशुं क्यारे अहो नेत्रथी,
ने वाणी मनोहारी चित्त धरशुं, क्यारे कहो प्रेमथी. १

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सद्वैराग्य रसे रसिक थईने, दीक्षेच्छु क्यारे थशुं,
ने दीक्षा ग्रहवा मुनीश्वर कने क्यारे सुभाग्ये जशुं. २
सेवा श्री गुरुदेवनी करी कदा निज संपदा पामशुं,
ने सुध्यानारूढ बनीने वनवासी क्यारे थशुं. ३
सर्पे के मणिमाळमां कुसुमनी शय्या तथा धूळमां,
क्यारे तुल्य थशुं प्रफुल्लित मने शत्रु अने मित्रमां. ४
ध्यानाभ्यास रसायणे हृदयने रंगी असंगी बनी,
क्यारे अस्थिरता तजी शरीरने वाणी तथा चित्तनी. ५
आत्मानन्द अपूर्व अमृतरसे, न्हाई थशुं निर्मळा,
ने संसार समुद्रना वमळथी क्यारे थशुं वेगळा. ६
क्यारे गिरिगुफा पवित्र शिखरे जई शान्तवृत्ति सजी,
सिद्धोना गुणनो विचार करशुं मिथ्या विकल्पो तजी. ७
वासी चंदन कल्प थई परिसहो सर्वे सहीशुं मुदा,
आवी शांत थशे अहो मुज कने शत्रु समूहो कदा. ८
श्रेणी क्षीण कषायनी ग्रही अने घाती हणीशुं कदा,
पामी केवलज्ञान निजस्वरूपनो स्वाद लईशुं सदा. ९
धारी योग निरोध कोण समये सिद्ध स्वरूपे थशुं,
एवी निर्मल भावना प्रणयथी भावुं सदा चित्तमां. १०