Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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साचे भावे भाविक जनने आपता मोक्ष मेवा,
चोथा स्वामी चरणयुगले हुं चहुं नित्य रहेवा.
५. श्री सुमति जिनस्तुति
आ संसारे भ्रमण करतां शान्ति माटे जिनेन्द्र,
देवो सेव्या कुमति वशथी में बहुये मुनीन्द्र;
तो ये ना’व्यो भवभ्रमणथी छूटकारो लगारे;
शान्तिदाता सुमतिजिनजी देव छे तुं ज मारे.
६. श्री पद्मप्रभ जिनस्तुति
सोना केरी सुरविरचिता पद्मनी पंक्ति सारी,
पद्मो जेवां प्रभु चरणना संगथी दीप्ति धारी;
देखी भव्यो अति उलटथी हर्षनां आंसु लावे,
ते श्री पद्मप्रभु चरणमां हुं नमुं पूर्ण भावे.
७. श्री सुपार्श्वनाथ जिनस्तुति
आखी पृथ्वी सुखमय बनी आपना दर्श काळे,
भव्यो पूजे भय रहित थई आपने पूर्ण व्हाले;
पामे मुक्ति भवभय थकी जे स्मरे नित्यमेव,
नित्ये वंदुं तुम चरणमां श्री सुपार्श्वेष्ट देव.
८. श्री चंद्रप्रभ जिनस्तुति
जेवी रीते शशिकिरणथी चंद्रकांत द्रवे छे,
तेवी रीते कठीण हृदये हर्षनो धोध व्हे छे;

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देखी मूर्ति अमृतझरती मुक्तिदाता तमारी,
प्रीते चंद्रप्रभजिन मने आपजो सेव सारी.
९. श्री सुविधि जिनस्तुति
सेवा माटे सुरनगरथी देवनो संघ आवे,
भक्ति भावे सुरगिरि परे अष्ट पूजा रचावे;
नाट्यारंगे नमन करीने पूर्ण आनंद पावे,
सेवा सारी सुविधि जिननी कोणने चित्त ना’वे?
१०. श्री शीतल जिनस्तुति
आधि व्याधि प्रमुख बहुये तापथी तप्त प्राणी,
शीळी छाया शीतलजिननी जाणीने हर्ष आणी;
नित्ये सेवे मन वचन ने कायथी पूर्ण भावे,
कापी खंते दुरित गणने पूर्ण आनंद पावे.
११. श्री श्रेयांस जिनस्तुति
(शार्दूलविक्रीडित)
जे हेतु विण विश्वनां दुःख हरे, न्हाया विना निर्मळा,
जीते आंतर शत्रुने स्वबळथी, द्वेषादिथी वेगळा;
वाणी जे मधुरी वदे भवतरी गंभीर अर्थे भरी,
ते श्रेयांस जिणंदनां चरणनी चाहुं सदा चाकरी.

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१२. श्री वासुपूज्य जिनस्तुति
जे भेदाय न चक्रथी, न असिथी के इन्द्रना वज्रथी,
एवां गाढ कुकर्म हे जिनपते, छेदाय छे आपथी;
जे शान्ति नव थाय चंदन थकी ते शान्ति आपो मने,
वासुपूज्य जिनेश हुं प्रणयथी नित्ये नमुं आपने.
१३. श्री विमल जिनस्तुति
(मन्दाक्रान्ता छंद)
जेवी रीते विमल जळथी वस्त्रनो मेल जाय,
तेवी रीते विमलजिनना ध्यानथी नष्ट थाय;
पापो जूनां बहु भव तणां, अज्ञताथी करेलां,
ते माटे हे जिन तुज पदे पंडितो छे नमेला.
१४. श्री अनंत जिनस्तुति
जेओ मुक्तिनगर वसता काळ सादि अनंत,
भावे ध्यावे अविचलपणे जेहने साधु
संत;
जेनी सेवा सुरमणि परे सौख्य आपे अनंत,
नित्ये मारा हृदयकमले आवजो श्री अनंत.
१५. श्री धर्म जिनस्तुति
संसारांभोनिधि जळ विषे बूडतो हुं जिनेन्द्र,
तारो सारो सुखकर भलो धर्म पाम्यो मुनीन्द्र;

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लाखो यत्नो यदि जन करे तोय ना तेह छोडुं,
नित्ये धर्मप्रभु तुज कने भक्तिथी हाथ जोडुं.
१६. श्री शांति जिनस्तुति
जाण्या जाये शिशु सकळनां लक्षणो पारणाथी,
शांति कीधी पण प्रभु तमे सर्व आ लोकमांही;
षट् खंडो ने नव निधि तथा चौद रत्नो तजीने,
पाम्या छो जे परम पदने आपजो ते अमोने.
१७. श्री कुंथुजिनस्तुति
जेनी मूर्ति अमृत झरती धर्मनो बोध आपे,
जाणे मीठुं वचन वदती शोक संताप कापे;
जेनी सेवा प्रणयभरथी सर्व देवो करे छे,
ते श्री कुंथुजिनचरणमां चित्त मारुं ठरे छे.
१८. श्री अरजिनस्तुति
जे दुःखोना विषम गिरिओ, वज्रनी जेम भेदे,
भव्यात्मानी निबिड जडता, सूर्यनी जेम छेदे;
जेनी पासे तृण सम गणे स्वर्गने इन्द्र जेवा,
एवी सारी अरजिन मने आपजो आप सेवा.
१९. श्री मल्लिजिनस्तुति
तार्या भव्यो अति प्रभावे ज्ञानना दिव्य तेजे,
सर्वज्ञ छो ! सर्वदर्शी प्रभु ! त्रैलोक्यना नाथ गाजे;

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सच्चारित्रे जन-मन-हरी बाळथी ब्रह्मचारी,
नित्ये मल्लि जिनपति मने आपजो सेव सारी.
२०. श्री मुनिसुव्रत जिनस्तुति
(शार्दूलविक्रीडित छंद)
अज्ञानांध कृति विनाश करवा जे सूर्य जेवा कह्या,
जेणे अष्ट प्रकारनां कठिण जे कर्मो बधां ते दह्यां;
जेनी आत्मस्वभावमां रमणता जे मुक्तिदाता सदा,
एवा ते मुनिसुव्रतेश नमिए जेथी टळे आपदा.
२१. श्री नमिजिनस्तुति
वैरी कर्म नम्या प्रभुश्री जिनने आत्मप्रभावे करी,
कीर्तिचंद्र करोज्ज्वला दिशि दिशि आ विश्वमां विस्तरी;
आपी बोध अपूर्व आ जगतने पाम्या प्रभु शर्मने,
पुण्ये श्री नमिनाथ आप चरणे पाम्यो खरा धर्मने.
२२. श्री नेमिजिनस्तुति
लोभावे ललना तणां ललित शुं त्रिलोकना नाथने?
कम्पावे गिरिभेदी वायु लहरी शुं स्वर्णना शैलने?
शुं स्वार्थे जिनदेव ए पशु तणा पोकारने सांभळे?
श्रीमन्नेमिजिनेंद्र सेवन थकी शुं शुं जगे ना मळे?

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२३. श्री पार्श्वजिनस्तुति
धूणिमां बळतो दयानिधि तमे ज्ञाने करी सर्पने,
जाणी सर्व जनो समक्ष क्षणमां आपी महा मंत्रने;
कीधो श्री धरणेन्द्र ने भव थकी तार्या घणा भव्यने,
आपो पार्श्वजिनेन्द्र नाशरहिता सेवा तमारी मने.
२४. श्री वीरजिनस्तुति
श्री सिद्धार्थ नरेन्द्रना कुलनभे भानु समा छो विभु,
मारा चित्तचकोरने जिन तमे छो पूर्ण चंद्र प्रभु;
पाम्यो छुं पशुता तजी सुरपणुं हुं आपना धर्मथी,
रक्षो श्री महावीरदेव मुजने पापी महा कर्मथी.
जिनेन्द्रजन्मकल्याणक
(ढाळ)
जिन रयणीजी दश दिशि उज्ज्वळता धरे,
शुभ लगनेजी ज्योतिष चक्र ते संचरे;
जिन जनम्याजी जेणे अवसर माता धरे,
तेणे अवसरजी इंद्रासन पण थरहरे.
(तोटक)
थरहरे आसन इंद्र चिंते, कोण अवसर ए बन्यो?
जिन जन्मउत्सव काल जाणी, अति ही आनंद उपन्यो;

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निज सिद्धि संपत्ति हेतु जिनवर, जाणी भक्ते उमह्यो,
विकसंत वदन प्रमोद वधते, देव नायक गहगह्यो. १.
(ढाळ)
तव सुरपतिजी घंटानाद करावए,
सुरलोकेजी घोषणा एह देवरावए;
नर क्षेत्रेजी जिनवर जन्म हुवो अछे,
तसु भक्तेजी सुरपति मंदरगिरि गछे.
(तोटक)
गच्छति मंदर शिखर उपर, भुवन जीवन जिन तणो,
जिन जन्म-उत्सव करण कारण, आवजो सवि सुरगणो;
तुम शुद्ध समकित थाशे निर्मल, देवाधिदेव निहाळतां,
आपणां पातिक सर्व जाशे, नाथ चरण पखालतां.
(ढाळ)
एम सांभळीजी, सुरवर कोडी बहु मली,
जिन वंदनजी, मंदरगिरि सामा चली;
सोहमपतिजी, जिन-जननी घर आविया,
जिन-माताजी, वंदी स्वामी वधाविया.
(तोटक)
वधाविया जिन हर्ष बहु ले, धन्य हुं कृतपुण्यए,
त्रैलोक्य नायक देव दीठो, मुज समो कोण अन्य ए;

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हे जगतजननी पुत्र तुमचो, मेरु मंजन वर करी,
उत्संग तुमचे वळीय थापीश आतमा पुण्ये भरी. ३.
(ढाळ)
सुरनायकजी, जिन निज करकमले ठव्या,
सहस्र नयणेजी, अतिशय महिमाए नीरख्या;
नाटक विधिजी, तव बहु बहु आगळ वहे,
सुरकोडीजी जिन दर्शने उम्महे.
(तोटक)
सुर कोडाकोडी नाचती वळी, नाथ शचिगण गावती,
अपसरा कोडी हाथ जोडी, हाव भाव देखावती;
ज्यो ज्यो तुं जिनराज जयगुरु एम दे आशीष ए,
अम प्राण शरण आधार जीवन, एक तुं जगदीश ए. ४.
(ढाळ)
सुर गिरिवरजी, पांडुक वनमें चिहुं दिशे,
गिरि शिला परजी, सिंहासन सासय वसे;
तिहां आणीजी, शक्रे जिन खोळे ग्रह्या,
सो इंद्रजी तिहां सुरपति आवी रह्या.
(तोटक)
आविया सुरपति सर्व भक्ते, कळश श्रेणी बनावए,
सिद्धार्थ पमुह तीर्थ औषधि, सर्व वस्तु अणावए;

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अच्युअपति तिहां हुकम कीनो, देव कोडाकोडीने,
जिन मंजनारथ नीर लावो, सर्व सुर कर जोडीने;
पुत्र तुमारो धणी हमारो तरणतारण जहाज रे,
माता जतन करीने राखजो तुम सुत अम आधार रे.
श्री भक्तामर स्तोत्र
(मानतुंगस्वामी रचित श्री ॠषभदेवस्तुतिनो गुजराती अनुवाद)
(रागवसंततिलका)
भक्तामरो खचित ताज-मणिप्रभाना,
उद्योतकर, हर पापतमो जथाना;
आधाररूप भव-सागरना जनोने,
एवा युगादि प्रभु पादयुगे नमीने.
कीधी स्तुति सकल-शास्त्रज-तत्त्वबोधे,
पामेल बुद्धिपटुथी सुरलोकनाथे;
त्रैलोक चित्तहर चारु उदार स्तोत्रे,
हुंये खरे स्तवीश आदि जिनेंद्रने ते.
बुद्धि विना ज सुरपूजित-पादपीठ!
में प्रेरी बुद्धि स्तुतिमां तजी लाज शुद्ध;
लेवा शिशु विण जळे स्थित चंद्रबिंब,
इच्छा करे ज सहसा जन कोण अन्य.

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के’वा गुणो गुणनिधि! तुज चंद्रकांत,
छे बुद्धिथी सुरगुरु सम को समर्थ?
ज्यां ऊछळे मगरमच्छ महान वाते,
रे कोण ते तरी शके ज समुद्र हाथे?
तेवो तथापि तुज भक्ति वडे मुनीश!
शक्ति रहित पण हुं स्तुतिने करीश;
प्रीते विचार बळनो तजी सिंह सामे,
ना थाय शुं मृगी शिशु निज रक्षवाने?
शास्त्रज्ञ अज्ञ गणीने हसतां छतांये,
भक्ति तमारी ज मने बळथी वदावे;
जे कोकिला मधुर चैत्र विषे उचारे,
ते मात्र आम्रतरुमहोर तणा प्रभावे.
बांधेल पाप जननां भव सर्व जेह,
तारी स्तुतिथी क्षणमां क्षय थाय तेह;
आ लोकव्याप्त निशिनुं भमरा समान,
अंधारुं सूर्य-किरणोथी हणाय जेम.
मानी ज तेम स्तुति नाथ तमारी आ में.
आरंभी अल्प मतिथी प्रभुना प्रभावे;
ते चित्त सज्जन हरे, ज्यम बिंदु पामे,
मोती तणी कमळपत्र विषे प्रभाने.

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दूर रहो रहित दोष स्तुति तमारी;
तारी कथा पण अहो जन-पापहारी;
दूर रहे रवि तथापि तस प्रभाए,
खीले सरोवर विषे कमळो घणांये.
आश्चर्य ना भुवनभूषण! भूतनाथ!
रूपे गुणे तुज स्तुति करनार साथ;
ते तुल्य थाय तुजनी, धनीको शुं पोते,
पैसे समान करता नथी आश्रितोने? १०
जो दर्शनीय प्रभु एक टसेथी देखे,
संतोषथी नहि बीजे जन नेत्र पेखे;
पी चंद्रकान्त पय क्षीरसमुद्र केरुं,
पीशे पछी जळनिधि जळ कोण खारुं? ११
जे शांतराग रुचिनां परमाणु मात्र,
ते तेटलां ज भुवि आप थयेल गात्र;
ए हेतुथी त्रिभुवने शणगार रूप,
तारा समान नहि अन्य तणुं स्वरूप. १२
त्रैलोक सर्व उपमाने जे जीतनारुं,
ने नेत्र देव-नर-उरग हारी तारुं;
क्यां मुख क्यां वळी कलंकित चंद्रबिंब,
जे दिवसे पीळचटुं पडी जाय खूब? १३

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संपूर्ण चंद्रतणी कान्ति समान तारा,
रूडा गुणो भुवन त्रैण उलंघनारा;
त्रैलोकनाथ तुज आश्रित एक तेने,
स्वेच्छा थकी विचरतां कदि कोण रोके? १४
आश्चर्य शुं! प्रभु तणा मनमां विकार,
देवांगना न कदी लावी शकी लगार;
संहारकाळ पवने गिरि सर्व डोले,
मेरुगिरि शिखर शुं कदी तोय डोले? १५
धूम्रे रहित नहि वाट, न तेलवाळो,
ने आ समग्र त्रण लोक प्रकाशनारो;
डोलावनार गिरि वायु न जाय पासे,
तुं नाथ छो अपर दीप जगत प्रकाशे. १६
घेरी शके कदी न राहु, न अस्त थाय,
साथे प्रकाश त्रण लोक विषे कराय;
तुं हे मुनींद्र, नहीं मेघ वडे छवाय,
लोके प्रभाव रविथी अदको गणाय. १७
मोहांधकार दळनार सदा प्रकाशी,
राहुमुखे ग्रसित ना, नहि मेघराशी;
शोभे तमारुं मुखपद्म अपार रूपे,
जेवो अपूर्व शशि लोक विषे प्रकाशे. १८

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शुं रात्रिमां शशि थकी दिवसे रविथी,
अंधारुं तुज मुखचंद्र हरे पछीथी!
शालि सुशोभित रही नीपजी धरामां,
शी मेघनी गरज होय ज आभलामां? १९
शोभे प्रकाश करी ज्ञान तमो विषे जे,
तेवुं नहीं हरिहरादिकना विषे ते;
रत्नो विषे स्फुरित तेज महत्त्व भासे,
तेवुं न काच कटके उजळे जणाशे. २०
मानुं रूडुं हरिहरादिकने दीठा ते,
दीठे छते हृदय आप विषे ठरे छे;
जोवा थकी जगतमां प्रभुनो प्रकाश,
जन्मान्तरे न हरशे मन कोई नाथ. २१
स्त्री सेंकडो प्रसवती कदी पुत्र झाझा,
ना अन्य आप सम को प्रसवे जनेता;
तारा अनेक धरती ज दिशा बधीय,
तेजे स्फुरित रविने प्रसवे ज पूर्व. २२.
माने परंपुरुष सर्व मुनि तमोने,
ने अंधकार समीपे रवि शुद्ध जाणे;
पामी तने सुरीत मृत्यु जीते मुनींद्र,
छे ना बीजो कुशळ मोक्ष तणो ज पंथ. २३

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तुं आद्य अव्यय अचिंत्य असंख्य विभु,
छे ब्रह्म ईश्वर अनंत अनंगकेतु;
योगीश्वर विदितयोग अनेक एक,
के’छे तने विमळ ज्ञानस्वरूप संत. २४
छो बुद्धि बोध थकी हे सुरपूज्य बुद्ध,
छो लोकने सुखद शंकर तेथी शुद्ध;
छो मोक्षमार्गविधि धारणथी ज धाता,
छो स्पष्ट आप पुरुषोत्तम स्वामी त्राता. २५
त्रैलोक दुःखहर नाथ! तने नमोस्तु,
तुं भूतळे अमलभूषणने नमोस्तु;
त्रैलोकना ज परमेश्वरने नमोस्तु,
हे जिन शोषक भवाब्धि! तने नमोस्तु. २६
आश्चर्य शुं गुण ज सर्व कदी मुनीश,
तारो ज आश्रय करी वसता हंमेश;
दोषो धरी विविध आश्रय ऊपजेला,
गर्वादिके न तमने स्वपने दीठेला. २७
ऊंचा अशोकतरु आश्रिय, कीर्ण ऊंच,
अत्यंत निर्मळ दीसे प्रभु आप रूप;
ते जेम मेघ समीपे रही सूर्यबिंब,
शोभे प्रसारी किरणो हणीने तिमिर. २८

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सिंहासने मणि तणा किरणे विचित्र,
शोभे सुवर्ण सम आप शरीर गौर;
ते सूर्यबिंब उदयाचळ शिर टोचे,
आकाशमां किरण जेम प्रसरी शोभे. २९
धोळां ढळे चमर कुंद समान एवुं,
शोभे सुवर्ण सम रम्य शरीर तारुं;
ते ऊगता शशिसमा जळ झर्ण धारे,
मेरु तणा कनकना शिर पेठ शोभे. ३०
ढांके प्रकाश रविनो, शशितुल्य रम्य,
मोती समूह रचनाथी दीपायमान;
एवा प्रभुजी तमने त्रण छत्र शोभे,
त्रैलोकनुं अधिपतिपणुं ते जणावे. ३१
गंभीर ऊंच स्वरथी पुरी छे दिशाओ,
त्रैलोकने सरस संपद आपनारो;
सद्धर्मराज जयने करनार खुल्लो,
वागे छे दुदुंभि नभे यशवादी तारो. ३२
मंदार सुंदर नमेरुज पारिजाते,
संतानकादि फुलनी बहु वृष्टि भारे;
पाणीकणे सुरभि मंद समीर प्रेरे;
शुं दिव्य वाणी तुज स्वर्णथकी पडे ते. ३३
शोभे विभो प्रसरती तुज कांति हारे,
त्रैलोकना द्युति समूहनी कांति भारे;
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ते ऊगता रविसमी बहु छे छतांये,
रात्रि जीते शीतल चंद्र समान तेजे. ३४
जे स्वर्ग-मोक्षसम मार्ग ज शोधी आपे,
सद्धर्म तत्त्वकथवे पटु त्रण लोके;
दिव्यध्वनि तुज थतो विशदार्थ सर्व,
भाषा-स्वभाव-परिणाम गुणोथी युक्त. ३५
खीलेल हेम-कमळो सम कांतिवाळा,
फेली रहेल नख-तेज थकी रूपाळा;
एवा जिनेंद्र तुम पाद डगो भरे छे,
त्यां कल्पना कमळनी विबुधो करे छे. ३६
एवी जिनेंद्र थई जे विभूति तमोने,
धर्मोपदेश समये नहि ते बीजाने;
जेवी प्रभा तिमिरहारी रवि तणी छे,
तेवी प्रकाशित ग्रहोनी कदी बनी छे? ३७
व्हेता मदे मलिन चंचळ शिर तेवो,
गुंजारवे भ्रमरना बहु क्रोधी एवो;
ऐरावते तुलित उद्धत हाथी सामे,
आवेल जोई तुम आश्रित भो न पामे. ३८
भेदी गजेंद्र शिर श्वेत रुधिरवाळा,
मोती समूह थकी भूमि दीपावी एवा;

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दोडेल सिंह तणी दोट विषे पडे जे,
ना तुज पादगिरि आश्रयथी मरे ते. ३९
जे जोरमां प्रलयना पवने थयेलो,
ओढा उडे बहु ज अग्नि दवे धीकेलो;
संहारशे जगत सन्मुख तेम आवे,
ते तुज कीर्तनरूपी जळ शांत पाडे. ४०
जे रक्त-नेत्र, पिककंठ समान काळो,
ऊंची फणे सरप सन्मुख आवनारो;
तेने निःशंक जन तेह उलंघी चाले,
त्वं नाम नागदमनी दिल जेह धारे. ४१
नाचे तुरंग गज शब्द करे महान,
एवुं रणे नृपतिनुं बळवान सैन्य;
भेदाय छे तिमिर जेम रवि करेथी,
छेदाय शीघ्र त्यम ते तुज कीर्तनेथी. ४२
बर्छी थकी हणित हस्ति रुधिर व्हे छे,
योद्धा प्रवाह थकी आतुर ज्यां तरे छे;
एवा युधे अजित-शत्रु जीते जनो ते,
त्वत्पादपंकजरूपी वन शर्ण ले जे. ४३
ज्यां ऊछळे मगरमच्छ तरंग झाझा,
ने वाडवाग्नि भयकारी थकी भरेला;
एवा ज सागर विषे स्थित नाव जे छे,
ते निर्भये तुज तणा स्मरणे तरे छे. ४४

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जे छे नम्या भयद रोग जलोदरेथी,
पाम्या दशा दुःखद आशन देह तेथी;
त्वत्पाद-पद्म रज अमृत निज देहे,
चोळे बने मनुज काम समान रूपे. ४५
बेडी जडी पगथी छेक गळा सुधीनी,
तेनी झीणी अणिथी जांग घसाय जेनी;
एवा अहोनिश जपे तुज नाम मंत्र,
तो ते जनो तुरत थाय रहित बंध. ४६
जे मत्त हस्ति, अहि, सिंह, दवानलाग्नि,
संग्राम, सागर, जलोदर, बंधनोथी;
पेदा थयेल भय ते झट नाश पामे,
त्हारुं करे स्तवन आ मतिमान पाठे. ४७
आ स्तोत्रमाळ तुजना गुणथी गुंथी में;
भक्ति थकी विविध वर्णरूपी ज पुष्पे;
तेने जिनेंद्र! जन जे नित कंठ नामे,
ते ‘मानतुंग’ अवशा शुभ लक्ष्मी पामे. ४८
❏ ❏ ❏
श्री कल्याणमंदिरस्तोत्र
(श्री कुमुदचन्द्र स्वामी रचित पार्श्वनाथस्तुतिनो गुजराती अनुवाद)
(मंदाक्रांता)
कल्याणोना सदन वळी जे पापभेदी उदार,
ते भीतोने अभयप्रद जे जे अनिन्दित सार;

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जन्माब्धिमां डुबत सघळां जंतुने नाव छे जे,
जिनेंदानां चरणकमळो एहवा वंदीने ते.
जेना मोटा महिम-जलधि केरुं सुस्तोत्र अत्र,
सुमेधावी सुरगुरु स्वयं गुंथवा नांहि शक्त;
जे तीर्थेशा कमठ-मदने धूमकेतु जगीश,
एवा तेनुं स्तवन वर आ निश्चये हुं करीश. (युग्म).
सामान्येथी पण स्वरूप तो वर्णवा तारुं अत्र,
केवी रीते अम सरिखडा नाथ हे! थाय शक्त?
धीठो तोये घुवड शिशु रे! दिवसे आंधळो जे,
शुं भानुनुं स्वरूप प्ररूपे निश्चये एहवो ते?
हे जिनेंदा! अनुभव करे मोहविनाश द्वारा,
तोये मर्त्यो समरथ नथी गुणवा गुण त्हारा;
कल्पांते ज्यां नीरनिधि तणुं नीर निश्चे वमाय,
कोनाथी त्यां प्रकट पण रे! रत्नराशि पमाय?
संख्यातीता महद गुणनी खाण एवा तमारुं,
स्तोत्र स्वामी! जडमति छतां गुंथवा बुद्धि धारुं!
भाखे ना शुं शिशुय जलधि केरी विस्तिर्णताने,
‘ह्यां विस्तारी स्वभुजयुगने निज बुद्धि प्रमाणे!
योगीओने पण तुज गुणो गम्य जे होय नांहि,
ते कहेवामां क्यम प्रसर रे! माहरो थाय आंही!

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तेथी आ तो थई वगर विचारी प्रवृत्ति आहा!
वा जल्पे छे खणगण खरे! निज केरी गिरामां.
दूरे तारुं स्तव जिन! अचिंत्य प्रभावी रहोने!
रक्षे नामे पण तम तणुं जन्मथी भुवनोने;
वायु रूडो कमलसरनो सुरसीलो वहे जे,
तीव्रोत्तापे हत पथिकने ग्रीष्ममां रीझवे ते.
प्राणीओना निबिड पण ते कर्मबंधो अहा! ह्यां,
विभु थाये शिथिल क्षणमां वर्ततां तुं हृदामां;
रे! शिखंडी सुखडवननी मध्यमां आवी जातां,
जेवी रीते भुजगमय ते शीघ्र शिथिल थातां.
मूकाये छे मनुज सहसा रौद्र उपद्रवोथी,
अत्रे स्वामी! जिनपति! तने मात्र निरीक्षवाथी;
गोस्वामीने स्फुरित प्रभने मात्र अत्रे दीठाथी,
जेवी रीते झट पशुगणो भागता चोरटाथी.
केवी रीते भविजन तणो जिन! तुं तारनार?
धारे तेओ हृदमहिं तने ऊतरे जेथी पार;
वा एही जे मशक तरती नीरने नक्की साव,
छे ते अंतर्गत मरुतनो निश्चये ज प्रभाव. १०