Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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जेनी पासे शिवप्रमुख सौ छे प्रभावे विहीन,
तुंथी तेह रतिपति क्षणे सर्वथा कीध क्षीण;
अग्निओ जे जल थकी अहो! निश्चये बुझवाय,
रे! शुं तेही दुःसह वडवावह्निथी ना पिवाय? ११
स्वामी! तुनें बहु ज गुरुतावंतने आश्रनारा,
सत्त्वो सर्वे हृदयमहिं तने धारीने क्या प्रकारा;
जन्माब्धिने अति लघुपणे रे! तरे शीघ्र साव,
वा अत्रे तो महद्जननो छे अचिंत्य प्रभाव. १२
जो विभु हे! प्रथमथी ज तें क्रोध कीधो निरस्त,
तो कीधा तें कई ज रीतथी कर्मचोरो विनष्ट?
लीलां वृक्षो युत वनगणोने अहो! लोकमांही,
ना बाळे शुं शिशिर पण रे! हिमराशिय आंही? १३
योगीओ तो जिनपति! सदा तुं परमात्मारूपीने,
रे! शोधे छे हृदयकजना कोशदेशे फरीने;
शुं कर्णिका विण अपर रे! संभवे छे अनेरुं,
स्थान ह्यां तो पुनित अमला अब्जना बीज केरुं? १४
पामे भव्यो क्षणमहिं प्रभु हे! परमात्मादशाने,
जिनेशा हे! शरीर तजीने आपश्रीना ज ध्याने;
तीव्राग्निथी तजी दई अहो! भाव पाषाण केरो,
पामे लोके झट कनकता जे रीते धातुभेदो. १५

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जेनी अंतः भवि थकी सदा तुं विभावाय भावे,
जिनेशा हे! शरीर पण ते नाश कां तु करावे?
वा वर्ते आ नकी अहीं अरे! मध्यवर्ति स्वरूप,
म्हानुभावो विग्रह शमवे सर्वथा जिनभूप! १६
आ आत्मा तो मनीषि जनथी तुंथी निर्भेद भावे,
ध्यायाथी हे जिनवर! बने तुज जेवो प्रभावे;
अत्रे पाणी पण अमृत आ एम रे! चिंतवातुं,
निश्चेथी शुं विषविकृतिने टाळनारुं न थातुं? १७
विभु तुंही तमरहितने वादीओए अनेरा,
निश्चे शंभु हरि प्रमुखनी धीथी मानी रहेला;
धोळो शंखे तदपि कमळायुक्तथी जिनराय!
नाना वर्णे विपरीत मतिए न शुं ते ग्रहाय? १८
(अशोकवृक्षादि अष्ट प्रातिहार्य)


अशोकवृक्ष
(रागमंदाक्रांता)
सान्निध्येथी तुज धरमना बोधवेळा विलोक!
दूरे लोको! तरु पण अहो! थाय अत्रे ‘अशोक’;
भानु केरो समुदय थये नाथ! आ जीवलोक,
शुं विबोध त्यम नहि लहे साथमां वृक्षथोक? १९

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सुरपुष्पवृष्टि
रे! चोपासे विमुख डिटडे मात्र शाने पडे छे,
वृष्टि भारी सुरकुसुमनी? हे विभु! चित्र ए छे!
वा त्हारा रे! दरशन पथे प्राप्त थातां ज निश्चे,
मुनीशा हे! सुमनगणनां बंधनो जाय नीचे. २०
दिव्यध्वनि
स्थाने छे आ गंभीर हृदयाब्धि थकी उद्भवेली,
त्हारी वाणी तणी पीयूषता छे जनोए कथेली;
तेने पीने पर प्रमदना संगभागी विरामे,
निश्चे भव्यो अजरअमराभावने शीघ्र पामे. २१
चामर
हे स्वामिश्री! अति दूर नमी ने ऊंचे ऊछळंता,
मानुं शुचि सुरचमरना वृंद आवुं वदंता
‘‘जेओ एही यतिपति प्रति रे! प्रणामो करे छे,
‘‘निश्चे तेओ उरध गतिने शुद्धभावे लहे छे.’’ २२
सिंहासन
बिराजेला कनक-मणिना शुभ्र सिंहासने ने
ह्यां गर्जंता गंभीर गिरथी, नीलवर्णा तमोने;
उत्कंठाथी भविजनरूपी मोरलाओ निहाळे,
सुवर्णाद्रि शिखरपर जाणे नवो मेघ भाळे! २३

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भामंडल
ऊंचे जाता तुज नील प्रभामंडलेथी विलोक!
पत्रो केरी द्युति थकी थयो हीन अत्रे अशोक;
वा नीरागी! भगवन! वळी आपना सन्निधाने,
नीरागिता नहि अहीं कियो चेतनावंत पामे? २४
देवदुंदुभि
‘‘भो भो भव्यो अवधूणी तमारा प्रमादो सहु ने,
आवी सेवो शिवपुरीतणा सार्थवाह प्रभुने,’’
मानुं आवुं त्रण जगतने देव! निवेदनारो,
व्यापी व्योमे गरजत अति देवदुंदुभि तारो. २५
छत्रत्रय
तारा द्वारा सकल भुवनो आ प्रकाशित थातां,
तारा वृंदो सहित शशि आ स्वाधिकारे हणातां,
मौक्तिकोना गणयुत उघाडेल त्रि छत्र ब्हाने,
आव्यो पासे त्रिविध तनुने धारी निश्चे ज जाणे! २६
त्रिलोकोने बहु बहु भरी पिंडरूपी थयेला,
जाणे कांति-प्रतप-यशना संचथी निज केरा;
माणिक्यो ने कनक रजते ए रचेला गढोथी,
विभासे छे भगवन अहो! तुंही सर्वे दिशोथी. २७

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पार्श्वप्रभु स्तुति
जन्माब्धिथी विमुख वरते तोय तुं जिनराज!
तारे छे जे स्वपीठपर लागेल प्राणीसमाज;
ते तुं पार्थिवनिरूपने युक्त निश्चे ज अत्रे,
तुं आश्चर्य! प्रभु! करमविपाक विहीन वर्ते!! २८
तुं विश्वेशो दुरगत छतां लोकरक्षी कहावे!
वा स्वामी! तुं अलिपि तदपि अक्षर स्वस्वभावे!
अज्ञानीमां तम महिं नकी सर्वदा को प्रकार,
ज्ञान स्फुरे त्रण जगतने हेतु उद्योतनार! २९
कमठासुरना उपसर्ग
व्याप्या जेणे अति अति महा भार द्वारा नभोने,
उडाडी’ती शठ कमठडे रोषथी जे रजोने;
तेथी छाया पण तम तणी ना हणाणी जिनेश!
दुरात्मा एह ज रज थकी ते ग्रसायो हताश. ३०
ज्यां गर्जता प्रबळ घनना ओघथी अभ्र भीम,
विद्युत त्रूटे मुसल सम ज्यां घोर धारा असीम;
दैत्ये एवुं ज दुस्तर वारि अरे! मुक्त कीधुं,
तेनुं तेथी ज दुस्तरवारि थयुं कार्य सीधुं. ३१
छूटा केशोथी विकृतिरूपी जे धरे मुंडमाला,
ने जेना रे! भयद मुखथी नीकळे अग्निज्वाला;

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विकुर्व्यो जे प्रभु! तम प्रति एहवो प्रेतवृंद,
ते तो तेने भवभव थयो संसृति दुःखकंद. ३२
(वसंततिलकावृत्त)
छे धन्य त्हारा भक्तने
छे धन्य ते ज अवनी महिं जेह प्राणी;
त्रिसंध्य तेज पद भुवननाथ नाणी!
आराधता विधिथी कार्य बीजां फगावी,
रोमांच भक्ति थकी अंग महिं धरावी. ३३
ना सुण्यो कदि में तने
मानुं अपार भवसागरमां जिनेश !
तुं कर्णगोचर मने न थयो ज लेश;
सुण्या पछी तुज सुनाम पुनित मंत्र,
आवे कने विपद-नागण शुं ? भदंत ! ३४
ना पूज्यो कदि में तने
जन्मांतरेय जिन! वांच्छित दानदक्ष,
पूज्या न में तुज पदोरूप कल्पवृक्ष,
आ जन्ममां हृदयमंथि पराभवोनो,
निवास हुं थई पड्यो, इश मुनिओना! ३५
ना दीठो कदि में तने
में मोहतिमिरथी आवृत्त नेत्रवाळे,
पूर्वे तने न निरख्यो नकी एक वारे,

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ना तो मने दुःखी करे क्यम मर्मभेदी,
एही अनर्थ उदयागत, विश्ववेदी! ३६
धार्यो न में हृदये तने
पूज्यो छतां श्रुत छतां निरख्यो छतांय,
धार्यो न भक्तिथी तने मुज चित्तमांय;
तेथी थयो हुं दुःखभाजन जिनराय!
ना भावविहीन क्रिया फलवंत थाय. ३७
छोडाव दुःख थकी मने
हे नाथ! दुःखीजनवत्सल! हे शरण्य!
कारुण्यपुण्यगृह! संयमीमां अनन्य!
भक्तिथी हुं नत प्रति धरी तुं दयाने,
था देव! तत्पर दुःखांकुर छेदवाने! ३८
निःसंख्य सत्त्वगृह, ख्यात प्रभाववाळा,
ने शत्रुनाशक शरण्य अहो! तमारां
पादाब्ज शर्ण लई जो छउं ध्यान वंध्य,
तो नष्ट हुं, भुवनपावन ! हुं ज वंध्य. ३९
देवेन्द्रवंद्य! विभु! वस्तुरहस्यजाण!
संसारतारक! जगत्पति! जिनभाण!
रक्षो मने भयद दुःखसमुद्रमांथी,
आजे करुणहृद! पुण्य करो दयाथी. ४०.

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हो तुं ज शर्ण भवेभवे!
तारां पदाब्जतणी संततिथी भरेली,
भक्तितणुं कंईय जो फल विश्वबेली!
तो तुं ज एक शरणुं बस एह मुज,
हो शर्ण आ भवभवांतरमांय तुं ज! ४१
स्तोत्रमाहात्म्य, उपसंहार
रे! आम विधिथी समाधिमने उमंगे,
रोमांच कंचुक धरी निज अंग अंगे;
सद्दबिम्ब निर्मल मुखांबुज द्रष्टि बांधी,
भव्यो रचे स्तवन जे तुज भक्ति सांधी. ४२
ते हे जिनेन्द्र! जयनेत्र ‘कुमुदचंद्र’!
ह्यां भोगवी स्वरग संपदवृंद चंग;
निःशेष कर्ममल संचय साव वामे,
ने शीघ्र तेह भगवन्! शिवधाम पामे. ४३
श्री समन्तभद्राचार्य विरचित
स्वयंभूस्तोत्र
(१) श्री आदिनाथस्तुति
(गीता छंद)
जो हुए है अरहंत आदि, स्वयं बोध सम्हारके,
परम निर्मल ज्ञान चक्षु, प्रकाश भवतम हारके;

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निज पूर्ण गुणमय वचन करसे, जग अज्ञान मिटा दिया,
सो चंद्र सम भवि जीव हितकर, जगतमांहि प्रकाशिया.
सो प्रजापति हो प्रथम जिसने, प्रजाको उपदेशिया,
असि कृषि आदि कर्मसे, जीवन उपाय बता दिया;
फिर तत्त्वज्ञानी परम विद, अद्भुत उदय धर्तारने,
संसार भोग ममत्व टाला, साधु संयम धारने.
इन्द्रियजयी, इक्ष्वाकुवंशी मोक्षकी इच्छा करे,
सो सहनशील सुगाढ व्रतमें साधु संयमको धरे;
निज भूमि महिला त्यागदी जो थी सती नारी समा,
यह सिंधु जल है वस्त्र जिसका और छोडी सब रमा.
निज ध्यान अग्नि प्रभावसे रागादि मूलक कर्मको,
करुणा विगर है भस्म कीने चार घाती कर्मको;
अरहंत हो जग प्राणि हित सत् तत्त्वका वर्णन किया,
फिर सिद्ध हो निज ब्रह्मपद अमृतमई सुख नित पिया.
जो नाभिनंदन वृषभ जिन सब कर्म मलसे रहित हैं,
जो ज्ञान तन धारी प्रपूजित साधुजन कर सहित हैं;
जो विश्वलोचन लघु मतों को जीतते निज ज्ञानसे,
सो आदिनाथ पवित्र कीजे आत्म मम अघ खानसे.
(२) श्री अजितनाथस्तुति
(मालिनी छंद)
दिविसे प्रभु आकर जन्म जब मात लीना,
घरके सब बन्धू मुखकमल हर्ष कीना;
स्वर्गसे

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क्रीडा करते भी जिन विजय पूर्ण पाई,
अजित नाम रक्खा जो प्रगट अर्थदाई.
अब भी जग लेते नाम भगवत् अजितका,
सत् शिवमगदाता वर अजित तीर्थंकरका.
मंगल कर्ता है परमशुचि नाम जिनका,
निज कारजका भी लेत नित वाम उनका.
जिम सूर्य प्रकाशे, मेघदलको हटाकर,
कमल वन प्रफुल्लैं, सब उदासी घटाकर;
तिम मुनिवर प्रगटे, दिव्य वाणी छटाकर,
भविगण आशय गत, मल कलंक मिटाकर.
जिसने प्रगटाया, धर्म भव पार कर्ता,
उत्तम अति ऊंची, जान जनदुःख हरता;
चंदन सम शीतल, गंग हृदयमें नहाते,
बहुधाम सताए, हस्तिवर शांति पाते.
निज ब्रह्म रमानी, मित्र शत्रु समानी,
ले ज्ञान कृपानी, रोषादि दोष हानी;
लहि आतम लक्ष्मी, निजवशी जीतकर्मा,
भगवन् अजितेश, दीजिए श्री स्वशर्मा. १०
(३) श्री संभवजिनस्तुति
(भुजंगप्रयात छंद)
तुंही सौख्यकारी जगमें नरोंको,
कुतृष्णा महाव्याधि पीडित जनोंको;

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अचानक परम वैद्य है रोगहारा,
यथा वैद्यने दीनका रोग टारा. ११
दशा जग अनित्यं, शरण है न कोई,
अहं मम मई दोष मिथ्यात्व वोई;
जरा-जन्म-मरणं सदा दुःख करे है,
तुही टाल कर्मं, परम शांति दे है. १२
खविजली सम चंचलं सुख विषयका,
करै वृद्धि तृष्णामई रोग जियका;
सदा दाह चित्तमें कुतृष्णा बढावे,
जगत दुःख भोगे, प्रभू हम बतावे. १३
जु है मोक्ष बन्धं, व है हेतु उनका,
बंधा अर खुला जिय, फलं जो छुटनका;
प्रभू स्याद्वादी, तुम्हीं ठीक कहते,
न एकांत मतके कभी पार लहते. १४
जहां इन्द्र भी हारता गुणकथनमें,
कहां शक्ति मेरी तुझी थुति करनमें;
तदपि भक्तिवश पुण्य यश गान करता;
प्रभू दीजिये नित शिवानन्द परता. १५
(४) श्री अभिनन्दन जिनस्तुति
(छंद स्रग्विनी)
आत्मगुण वृद्धिते नाथ अभिनन्दना,
धर अहिंसा वधू, क्षांति सेवित घना;
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आत्ममय ध्यानकी, सिद्धिके कारणे,
होय निर्ग्रंथ पर, दोय विधि टारणे. १६
तन अचेतन यही, और तिस योगते,
प्राप्त संबंधमें, आपपन मानते;
जो क्षणिक वस्तु है, थिरपना देखते,
नाश जग देख प्रभु, तत्त्व उपदेशते. १७
क्षुत त्रषा रोग प्रतिकार बहु ठानते,
अक्ष सुख भोग कर तृप्ति नहिं मानते;
थिर नहीं जीव तन हित न हो दौडना,
यह जगत्रूप भगवान विज्ञापना. १८
लोलुपी भोग जन, नहिं अनीति करे,
दोषको देख जग, भय सदा उर धरे;
है विषय मग्नता, दोउ भव हानिकर,
सुज्ञ क्यों लीन हो, आप मत जानकर. १९
है विषयलीनता, प्राणिको तापकर,
है तृषा वृद्धिकर, हो न सुखसे वसर;
हे प्रभो! लोकहित, आप मत मानके,
साधुजन शर्ण ले, आप गुरु मानके. २०
(५) श्री सुमतितीर्थंकरस्तुति
(तोटक छंद)
मुनि नाथ सुमति सत् नाम धरे,
सत् युक्तिमई मत तुम उचरे;

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तुम भिन्न मतोंमें नाहि बने,
सब कारज कारक तत्त्व घने. २१
है तत्त्व अनेक व एक वही,
तत्त्व भेद अभेदहि ज्ञान सही;
उपचार कहो तो सत्य नहीं,
इक हो अन ना वक्तव्य नहीं. २२
है सत्त्व असत्त्व सहित कोई नय,
तरु पुष्प रहे न हि व्योम कलप;
तव दर्शन भिन्न प्रमाण नहीं,
स्व स्वरूप नहीं कथमान नहीं. २३
जो नित ही होता नाश उदय,
नहिं, हो न क्रिया, कारक न सधय;
सत् नाश न हो नहिं जन्म असत्,
जु प्रकाश गए पुद्गल तम सत्. २४
विधि वा निषेध सापेक्ष सही,
गुण मुख्य कथन स्याद्वाद यही;
इम तत्त्व प्रदर्शी आप सुमति,
थुति नाथ करूं हो श्रेष्ठ सुमति. २५
(६) श्री पद्मप्रभ जिनस्तुति
(मुक्तादाम छंद)
पदमप्रभ पद्म समान शरीर,
शुचि लेश्याधर रूप गंभीर;

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परम श्री शोभित मूर्ति प्रकाश,
कोमल सूरजवत् भव्य विकाश. २६
धरत ज्ञानादि रिद्धि अविकार,
परम ध्वनि चारु समवसृत सार;
रहे अरहंत परम हितकार,
धरी बोधश्री मुक्ति मंझार. २७
प्रभू तन रश्मिसमूह प्रसार,
बाल सूर्यसम छबि धरतार;
नर सुर पूर्ण सभामें व्यापा,
जिम गिरि पद्मराग मणि तापा. २८
सहसपत्र कमलों पर विहरे,
नभमें मानो पल्लव प्रसरे;
कामदेव जेता जिनराजा,
करत प्रजाका आतम काजा. २९
तुम ॠषि गुणसागर गुण लव भी,
कथन न समरथ इन्द्र कभी भी;
हूं बालक कैसे गुण गाऊं,
गाढ भक्तिसे कुछ कह जाऊं. ३०
(७) श्री सुपार्श्वजिनस्तुति
(छन्द चौपाई)
जय सुपार्श्व भगवन् हित भाषा,
क्षणिक भोगकी तज अभिलाषा;

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तप्त शांत नहि तृष्णा बधती,
स्वस्थ रहे नित मनसा सधती. ३१
जिम जड यंत्र पुरुषसे चलता,
तिम यह देह जीवधृत पलता;
अशुचि दुखद दुर्गंध कुरूपी,
यामें राग कहा दुखरूपी. ३२
यह भवितव्य अटल बलधारी,
होय अशक्त अहं मतिकारी;
दो कारण विन कार्य न राचा,
केवल यत्न विफल मत राचा. ३३
डरत मृत्युसे तदपि टलत ना,
नित हित चाहे तदपि लभत ना;
तदपि मूढ भयवश हो कामी,
वृथा जलत हिय हो न अकामी. ३४
सर्व तत्त्वके आप हि ज्ञाता,
मात बालवत् शिक्षा दाता;
भव्य साधुजनके हो नेता,
मैं भी भक्ति सहित थुति देता. ३५
(८) श्री चन्द्रप्रभ तीर्थंकरस्तुति
(भुजंगप्रयात छंद)
प्रभू चन्द्रसम शुक्ल वर वर्णधारी,
जगत नित प्रकाशित परम ज्ञानचारी;

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जिनं जितकषायं महत् पूज्य मुनिपति,
नमूं चंद्रप्रभ तू द्वितिय चंद्र जिनपति. ३६
हरैं भानुकिरणें यथा तम जगतका,
तथा अंग भामंडलं तम जगतका;
शुक्लध्यान दीपक जगाया प्रभुने,
हरा तम कुबोधं स्वयं ज्ञानभूने. ३७
स्वमत श्रेष्ठताका धरैं मद प्रवादी,
सुनें जिनवचनको तजें मद कुवादी;
यथा मस्त हाथी सुनें सिंहगर्जन,
तजैं मद तथा मोहका हो विसर्जन. ३८
तुही तीन भूमें परमपद प्रभु है,
करे कार्य अद्भुत परम तेज तू है;
जगत नेत्रधारी अनंतं प्रकाशी,
रहे नित सकल दुःखका तू विनाशी. ३९
तुंही चन्द्रमा भविकुमुदका विकाशी,
किया नाश सब दोष मल मेघराशी;
प्रगट सत् वचनकी किरणमाल व्यापी,
करो मुझ पवित्र तुही शुचि प्रतापी. ४०
(९) श्री पुष्पदंत तीर्थंकरस्तुति
(पद्धरी छंद)
हे सुविधि! आपने कहा तत्त्व,
जो दिव्यज्ञानसे तत् अतत्त्व;

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एकांत हरण सुप्रमाण सिद्ध;
नहिं जान सकैं तुमसे विरुद्ध. ४१
है अस्ति कथंचित् और नास्ति,
भगवान् तुझ मतमें यह तथास्ति;
सत् असत्मई भेद रु अभेद,
हैं वस्तु बीच नहिं शून्य वेद. ४२
‘यह है वह ही’ है नित्य सिद्ध,
‘यह अन्य भया’ यां क्षणिक सिद्ध;
नहि है विरुद्ध दोनों स्वभाव,
अंतर बाहर साधन प्रभाव. ४३
पद एकानेक स्ववाच्य तास,
जिम वृक्ष स्वतः करते विकास;
यह शब्द स्यात् गुण मुख्यकार,
नियमित नहिं होवे बाध्यकार. ४४
गुण मुख्य कथक तव वाक्य सार,
नहिं पचत उन्हें जो द्वेष धार;
लखि आप्त तुम्हें इन्द्रादिदेव,
पदकमलनमें मैं करहुं सेव. ४५
(१०) श्री शीतलनाथस्तुति
(छन्दः स्रग्विणी)
तव अनघ वाक्य किरणें, विशद ज्ञानपति,
शांत-जल-पूरिता, शमकरा सुष्ठुमति;

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है तथा शम न चन्दन, किरण चन्द्रमा,
नाहिं गंगा जलं, हार मोती शमा. ४६
अक्षसुख चाहकी आगसे तृप्त मन,
ज्ञान-अमृत-सुजल सींच कीना शमन;
वैद्य जिम मंत्र गुणसे करे शांत तन,
सर्व विषकी जलनसे हुआ बेयतन. ४७
भोगकी चाह अर चाह जीवन करे,
लोक दिन श्रम करे रात्रिको सो रहे;
हे प्रभु आप तो रात्रि दिन जागिया,
मोक्षके मार्गको हर्षयुत साधिया. ४८
पुत्र धन और परलोककी चाह कर,
मूढजन तप करें आपको दाह कर;
आपने तो जरा जन्मके नाश हित,
सर्व किरिया तजी शांतिमय भावहित. ४९
आप ही श्रेष्ठ ज्ञानी महा हो सुखी,
आपसे जो परे बुद्धि लव मद दुःखी;
याहिते मोक्षकी भावना जे करें,
संतजन नाथ शीतल तुम्हें उर धरे. ५०
(११) श्री श्रेयांस जिनस्तुति
(छन्द मालिनी)
जिनवर हितकारी वाक्य निर्बाधधारी,
जगत जिन सुहितकर मोक्षमारग प्रचारी;

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जिम मेघ रहित हो सूर्य एकी प्रकाशे,
तिम तुम या जगमें एक अद्भुत प्रकाशे. ५१
है विधिषेध वस्तु और प्रतिषेध रूपं,
जो जाने युगपत् है प्रमाण स्वरूपं;
कोई धर मुख्यं अन्यको गौण करता,
नय अंश प्रकाशी पुष्ट द्रष्टांत करता. ५२
वक्ता इच्छासे मुख्य इक धर्म होता,
तब अन्य विवक्षा विन गौणता मांहि सोता;
अरिमित्र उभयविन एक जन शक्ति रखता,
है तुज मत द्वैतं, कार्य तब अर्थ करता. ५३
जब होय विवादं सिद्ध द्रष्टांत चलता,
वह करता सिद्धी जब अनेकांत पलता;
एकांत मतोंमें साधना होय नाहीं,
तव मत है साचा, सर्व सधता तहां ही. ५४
एकांत मतों के चूर्ण करता तिहारे,
न्यायमई बाणं मोहरिपु जिन संहारे;
तम ही तीर्थंकर केवल ऐश्वर्य धारी,
तातें तेरी ही भक्ति करनी विचारी. ५५
(१२) श्री वासुपूज्यस्तुति
(छंद)
तुम्हीं कल्याण पंचमें पूजनीक देव हो,
शक्र राज पूजनीक वासुपूज्य देव हो;

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मैं भी अल्पधी मुनीन्द्र पूज आपकी करूं;
भानुके प्रपूज काज दीपकी शिखा धरूं. ५६
वीतराग हो तुम्हें न हर्ष भक्ति कर सके,
वीतद्वेष हो तुम्हीं, न क्रोध शत्रु हो सके;
सार गुण तथापि हम कहें महान भावसे,
हो पवित्र चित्त हम हटें मलीन भावसे. ५७
पूजनीक देव आप पूजते सुचावसे,
बांधते महान पुण्य जन विशुद्ध भावसे;
अल्प अघ न दोषकर यथा न विष कणा करे,
शीत शुचि समुद्र नित्य शुद्ध ही रहा करे. ५८
वस्तु बाह्य है निमित्त पुण्य पाप भावका,
है सहाय मूलभूत अन्तरंग भावका;
वर्तता स्वभावमें उसे सहायकार है,
मात्र अन्तरंग हेतु कर्म बंधकार है. ५९
बाह्य अंतरंग हेतु पूर्णता लहाय है,
कार्यसिद्ध तहां होय द्रव्यशक्ति पाय है;
और भांति मोक्षमार्ग होय ना भवीनिको,
आप ही सुवंदनीक हो गुणी ॠषीनिको. ६०
(१३) श्री विमलनाथस्तुति
(भुजंगप्रयात छंद)
नित्यत्व अनित्यत्व नयवाद सारा,
अपेक्षा विना आपपर नाशकारा;