Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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अपेक्षा सहित है स्वपर कार्यकारी,
विमलनाथ तुम तत्त्व ही अर्थकारी. ६१
यथा एक कारण नहीं कार्य करता,
सहायक उपादानसे कार्य सरता;
तथा नय कथन मुख्य गौणं करत हैं,
विशेष वा सामान्य सिद्धि करत है. ६२
हरएक वस्तु सामान्य और विशेषं,
अपेक्षा कृत भेद अभेदं सुलेखं;
यथा ज्ञान जगमें वही है प्रमाणं,
लखे एकदम आपपर तुम वखानं. ६३
वचन है विशेषण उसी वाच्यका ही,
जिसे वह नियमसे कहे अन्य नाहीं;
विशेषण विशेष्य न हो अति प्रसंगं,
जहां स्यात् पद हो न हो अन्य संगं. ६४
यथा लोह रसबद्ध हो कार्यकारी,
तथा स्यात् सुचिह्नित सुनय कार्यकारी;
कहा आपने सत्य वस्तु स्वरूपं,
मुमुक्षु भविक वन्दते आप रूपं. ६५
(१४) श्री अनन्तनाथस्तुति
(पद्धरी छंद)
चिर चित्तवासी मोही पिशाच,
तन जिस अनंत दोषादि राच;

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तुम जीत लिया निज रुचि प्रसाद,
भगवन् अनन्त जिन सत्य वाद. ६६
कल्वषकारी रिपु चव कषाय,
मन्मथमद रोग जु तापदाय;
निज ध्यान औषधी गुण प्रयोग,
नाशे ह्वे सबवित् सयोग. ६७
है खेदअम्बु भयगण-तरंग,
ऐसी सरिता तृष्णा अभंग;
सोखी अभंग रविकर प्रताप,
हो मोक्ष-तेज जिनराज आप. ६८
तुम प्रेम करें वे धन लहंत,
तुम द्वेष करें हो नाशवंत;
तुम दोनों पर हो वीतराग,
तुम धारत हो अद्भुत सुहाग. ६९
तुम ऐसे हो वैसे मुनीश,
मुझ अल्पबुद्धिका कथन इश;
नहिं समरथ सर्व माहात्म ज्ञान,
सुखकर अमृत-सागर समान. ७०
(१५) श्री धर्मनाथस्तुति
(स्रग्विणी छंद)
धर्म सत् तीर्थको जग प्रवर्तन किया,
धर्म ही आप हैं साधुगण लख लिया;

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ध्यानमय अग्निसे कर्मवन दग्ध कर,
सौख्य शाश्वत लिया सत्त्वशंकर अमर. ७१
देव मानव भक्तिवृन्दसे सेवितं,
बुद्ध गणधर प्रपूजित महाशोभितं;
जिस तरह चंद्रमा नभ सुनिर्मल लसे,
तारका वेष्ठितं शांतिमय हुल्लसे. ७२
प्रातिहारज विभव आपके राजती,
देहसे भी नहीं रागता छाजती;
देव मानव सुहित मोक्षमग कह दिया,
होय शासनफलं यह न चित्तमें दिया. ७३
आपकी मन वचन कायकी सब क्रिया,
होय इच्छा विना कर्मकृत यह क्रिया,
हे मुने! ज्ञान विन है न तेरी क्रिया,
चित नहीं कर सकै भान अद्भुत क्रिया. ७४
आपने मानुषी भावको लांघकर,
देवगणसे महा पूज्यपन प्राप्त कर;
हो महादेव आप, हे धरमनाथजी!
दीजिये मोक्षपद हाथ श्री साथजी. ७५
(१६) श्री शांतिनाथस्तुति
(नाराच छन्द)
परम प्रताप धर जु शांतिनाथ राज्य बहु किया,
महान शत्रुको विनाश सर्व जन सुखी किया;

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यतीश पद महान धार दयामूर्ति बन गए,
आपहीसे आपके कुपाप सब शमन भए. ७६
परम विशालचक्रसे जु सर्व शत्रु भयकरं,
नरेन्द्रके समूहको सुजीत चक्रधर वरं;
हुए यतीश आत्मध्यान-चक्रको चलाईया,
अजेय मोह नाशके महाविराग पाईया. ७७
राजसिंह राज्यकीय भोग या स्वतंत्र हो,
शोभते नृपोंके मध्य राज्य लक्ष्मीतंत्र हो;
पायके अर्हंत लक्ष्मी आपमें स्वतंत्र हो,
देव नर उदार सभा शोभते स्वतंत्र हो. ७८
चक्रवर्ति पद नृपेन्द्र-चक्र हाथ जोडिया,
यतीश पदमें दयार्द्र धर्मचक्र वश किया;
अर्हन्त पद देव-चक्र हाथ जोड नत किया,
चतुर्थ शुक्लध्यान कर्म नाश मोक्ष वर लिया. ७९
रागद्वेष नाश आत्मशांतिको बढाईया,
शरण जु लेय आपकी वही सुशांति पाईया;
भगवन् शरण्य शांतिनाथ भाव ऐसा है सदा,
दूर हो संसार क्लेश भय न हो मुझे कदा. ८०

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(१७) श्री कुन्थुनाथस्तुति
(छंद तोटक)
जय कुंथुनाथ नृप चक्रधरं,
यति हो कुन्थ्वादि दयार्द्र परं;
तुम जन्म-जरा-मरणादि शमन,
शिवहेतु धर्मपथ प्रगट करन. ८१
तृष्णाग्नि दहत नहि होय शमन,
मन-इष्ट भोगकर होय बढन;
तन-ताप-हरण कारण भोगं,
इम लख विजविद् त्यागे भोगं. ८२
बाहर तप दुष्कर तुम पाला,
जिन आतम ध्यान बढे आला;
द्वय ध्यान अशुभ नहिं नाथ करे,
उत्तम द्वय ध्यान महान धरे. ८३
निज घाती कर्म विनाश किये,
रत्नत्रय तेज स्ववीर्य लिये;
सब आगमके वक्ता राजैं,
निर्मल नभ जिम सूरज छाजैं. ८४
यतिपति! तुम केवलज्ञान धरे,
ब्रह्मादि अंश नहि प्राप्त करे;
निज हित रत आर्य सुधी तुमको,
अज ज्ञानी अर्ह नमैं तुमको. ८५

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(१८) श्री अरनाथस्तुति
(पद्धरी छंद)
गुण थोडे बहुत कहे बढाय,
जगमें थुति सो ही नाम पाय;
तेरे अनन्त गुण किम कहाय,
स्तुति तेरी कोई विधि न थाय. ८६
तो भी मुनीन्द्र शुचि कीर्ति धार,
तेरा पवित्र शुभ नाम सार;
कीर्तनसे मन हम शुद्ध होय,
तातैं कहना कुछ शक्ति जोय. ८७
तुम मोक्ष चाहको धार नाथ,
जो भी लक्ष्मी सम्पूर्ण साथ;
सब चक्र चिह्न सह भरतराज्य,
जीरण तृणवत् छोडा सुराज्य. ८८
तुम रूप परम सुन्दर विराज,
देखनको उमगा इन्द्रराज;
दो-लोचन-धर कर सहस नयन,
नहिं तृप्त हुआ आश्चर्य भरन. ८९.
जो पापी सुभट-कषाय-धार,
ऐसा रिपु मोह अनर्थकार;
सम्यक्त्व ज्ञान संयम सम्हार,
इन शस्त्रनसे कीना संहार. ९०

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यह काम धरत बहु अहंकार,
त्रय लोक प्राणिगण विजयकार;
तुमरे ढिग पाई उदयहार,
तब लज्जित हुआ है अपार. ९१
तृष्णा सरिता अति ही उदार,
दुस्तर इह-परभव दुःखकार;
विद्या-नौका चढ रागरिक्त,
उतरे तुम पार प्रभु विरक्त. ९२
यमराज जगतको शोककार,
नित जरा जन्म द्वै सखा धार;
तुम यमविजयी लख हो उदास,
निज कार्य करन समरथ न तास. ९३
हे धीर! आपका रूप सार,
भूषण आयुध वसनादि टार;
विद्या दम करुणामय प्रसार,
कहता प्रभु दोष रहित अपार. ९४
तेरा वपु भामंडल प्रसार,
हरता सब बाहर तम अपार;
तव ध्यान तेजका है प्रभाव,
अंतर अज्ञान हरै कुभाव. ९५
सर्वज्ञ ज्योतिसे जो प्रकाश,
तेरी महिमाका जो विकाश;
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है कौन सचेतन प्राणी नाथ,
जो नमन करैं नहिं नाय माथ. ९६
तुम वचनामृत तत्त्व प्रकाश;
सब भाषामय होता विकाश;
सब सभा व्यापकर तृप्तकार,
प्राणिनको अमृतवत् विचार. ९७
तुम अनेकांत मत ही यथार्थ,
यातें विपरीत नहीं यथार्थ;
एकांत द्रष्टि है मृषा वाक्य,
निज घातक सर्व अयोग्य वाक्य. ९८
एकांती तपसी मान धार,
निज दोष निरख गज नयन धार;
ते अनेकांत खंडन अयोग्य,
तुझ मत लक्ष्मीके हैं अयोग्य. ९९
एकांती निज घातक जु दोष,
समरथ नहि दूर करण सदोष;
तुम द्वेष धार निज हननकार,
मानैं अवाच्य सब वस्तु सार. १००
सत् एक नित्य वक्तव्य वाक्य,
या तिन प्रतिपक्षी नय सुवाक्य,
सर्वथा कथनमें दोषरूप,
यदि स्याद्वाद हों पुष्टरूप. १०१

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सर्वथा नियमका त्यागकार,
जिस नय श्रुत देखा पुष्टकार;
है ‘स्यात्’ शब्द तुम मत मंझार,
निज घाती अन्य न लखें सार. १०२
है अनेकान्त भी अनेकान्त,
साधत प्रमाण नय, विना ध्वांत;
सप्रमाण द्रष्टि है अनेकान्त,
कोई नय-मुखसे है एकांत. १०३
निरूपम प्रमाणसे सिद्ध धर्म,
सुखकर हितकर गुण कहत मर्म;
अरजिन! तुम सम जिन तीर्थनाथ,
नहिं कोई भवि बोधक सनाथ. १०४
मति अपनी के अनुकूल नाथ!
आगम जिन कहता मुक्तिनाथ!
तद्वत् गुण अंश कहा मुनीश!
जासे क्षय हों मम पाप इश! १०५
(१९) श्री मल्लिनाथस्तुति
(छंद तोटक)
जिन मल्लिमहर्षि प्रकाश किया,
सब वस्तु सुबोध प्रत्यक्ष लिया;

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तब देव मनुज जग प्राणि सभी,
कर जोड नमन करते सुखधी. १०६
जिनकी मूरति है कनकमयी,
प्रसरी भामंडल रूपमयी;
वाणी जिनकी सत्-तत्त्वकथक,
स्यात्पदपूर्वे यतिगणरंजक. १०७
जिन आगे होई गलित माना,
एकान्ती तजैं वाद थाना;
विकसित सुवरण अम्बुज दलसे,
भू भी हंसती प्रभुपद तलसे. १०८
जिन-चंद्र वचन किरणे चमकैं,
चहुं ओर शिष्य यतिग्रह दमकैं;
निज आत्मतीर्थ अति पावन है,
भवसागर-जन इक तारन है. १०९
जिन शुकल ध्यान तप अग्नि बली,
जिससे कर्मौंंध अनंत जली;
जिनसिंह परम कृतकृत्य भये,
निःशल्य मल्लि हम शरण गये. ११०
(२०) श्री मुनिसुव्रत जिनस्तुति
(स्रग्विणी छन्द)
साधु-उचित व्रतोमें सुनिश्चित थये,
कर्म हर तीर्थंकर साधु-सुव्रत भये;

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साधुगणकी सभामें सुशोभित भये,
चंद्र जिम उडुगणोंसे सुवेष्ठित भये. १११
मोरके कंठ सम नीलरंग रंग है,
काममद जीतकर शांतिमय अंग है;
नाथ! तेरी तपस्या जनित अंग जो,
शोभता चंद्रमंडल मई रंग जो. ११२
आपके अंगमें शुक्ल ही रक्त था,
चंद्रसम निर्मल रजरहित गंध था;
आपका शांतिमय अद्भुतं तन जिनं,
मनवचनका प्रवर्तन परम शुभ गणं. ११३
जनन व्यय ध्रौव्य लक्षणं जगत् प्रतिक्षणं,
चित अचित आदिसे पूर्ण यह हरक्षणं;
यह कथन आपका, चिह्न सर्वज्ञका,
है वचन आपका आप्त उत्कृष्टका. ११४
आपने अष्ट कर्मं कलंकं महा,
निरुपमं ध्यान बलसे सभी है दहा;
भवरहित मोक्षसुखके धनी हो गए,
नाश संसार हो भाव मेरे भए. ११५
(२१) श्री नमिनाथ जिनस्तुति
(स्रग्विणी छंद)
साधु जब स्तुति करे भाव निर्मल धरे,
स्तुत्य हो वा नहीं, फल करै ना करे;

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इम सुगम मोक्षमग जग स्व-आधीन है,
नमिजिनं आप पूजे गुणाधीन है. ११६
आपने सर्ववित्! आत्मध्यानं किया,
कर्मबंध जला मोक्षमग कह दिया;
आपमें केवलज्ञान पूरण भया,
अनमती आप रवि-जुगनु सम हो गया. ११७
अस्ति नास्ति उभय वानुभय मिश्र तत्,
सप्तभंगीमयं तत् अपेक्षा स्वकृत;
त्रियमितं धर्ममय तत्त्व गाया प्रभू,
नैक नयकी अपेक्षा, जगतगुरु प्रभू! ११८
अहिंसा जगत् ब्रह्म परमं कही है,
जहां अल्प आरंभ वहां नहीं रही रहै;
अहिंसाके अर्थं तजा द्वय परिग्रह,
दयामय प्रभू वेष छोडा उपधिमय. ११९
आपका अंग भूषण, वचनसे रहित,
इन्द्रियां शांत जहं, कहत तुम कामजित;
उग्र शस्त्रं विना निर्दयी क्रोध जित,
आप निर्मोह, शममय, शरण राख नित. १२०

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(२२) श्री नेमिनाथ जिनस्तुति
(छंद तोटक)
भगवन् ॠषि ध्यान सु शुक्ल किया,
इंधन चहुं कर्म जलाय दिया;
विकसित अम्बुजवत् नेत्र धरें,
हरिवंश-केतु, नहिं जरा धरें. १२१
निर्दोष विनय दम वृष कर्ता,
शुचि ज्ञान किरण जन हित कर्ता;
शीलोदधि नेमि अरिष्ट जिनं,
भव नाश भए प्रभु मुक्त जिनं. १२२
तुम पादकमल युग निर्मल हैं,
पदतल-द्वय रक्त-कमल-दल है;
नख चन्द्र किरण मंडल छाया,
अति सुंदर शिखरांगुलि भाया. १२३
इन्द्रादि मुकुट मणि किरण फिरै,
तव चरण चूम्बकर पुण्य भरै;
निज हितकारी पंडित मुनिगण,
मंत्रोच्चारी प्रणमैं भविगण. १२४
द्युतिमय रविसम रथचक्र किरण,
करती व्यापक जिस अंग धरन;
है नील जलद सम तन नीलं,
है केतु गरुड जिस कृष्ण हलं. १२५

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दोनों भ्राता प्रभु-भक्ति-मुदित,
वृषविनय-रसिक जननाथ उदित;
सहबंधु नेमिजिन-सभा गए,
युग चरणकमल वह नमत भए. १२६
भुवि काहि ककुद गिरनार अचल,
विद्याधरणी सेवित स्वशिखर;
हैं मेघ पटल छाए जिस तट,
तव चिह्न उकेरे वज्र-मुकुट. १२७
इम सिद्धक्षेत्र धर तीर्थ भया,
अब भी ॠषिगणसे पूज्य थया;
जो प्रीति हृदयधर आवत हैं,
गिरनार प्रणम सुख पावत हैं. १२८
जिननाथ! जगत् सब तुम जाना,
युगपत् जिम करतल अमलाना;
इंद्रिय वा मन नहिं घात करें,
न सहाय करैं, इम ज्ञान धरें. १२९
यातें हे जिन! बुधनुत तव गुण,
अद्भुत प्रभावधर न्याय सगुण;
चिंतन कर मन हम लीन भए,
तुमरे प्रणमन तल्लीन भए. १३०

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(२३) श्री पार्श्वनाथ जिनस्तुति
(पद्धरी छंद)
जय पार्श्वनाथ अति धीर वीर,
नीले वादल विजली गंभीर;
अति उग्र वज्र जल पवन पात,
वैरी उपद्रुत नहिं ध्यान जात. १३१
धरणेन्द्र नाग निज फण प्रसार,
बिजलीवत् पीत सुरंग धार;
श्री पार्श्व उपद्रुत छाय लीन,
जिम नग तडिदम्बुद सांझ कीन. १३२
प्रभु ध्यानमयी असि तेजधार;
कीना दुर्जय मोह प्रहार;
त्रैलोक्य पूज्य अद्भुत अचिन्त्य,
पाया अर्हंत पद आत्मचिन्त्य. १३३
प्रभु देख कर्मसे रहित नाथ,
वनवासी तपसी आये साथ;
निजश्रम असार लख आप चाह,
धरकर शरण ली मोक्षराह. १३४
श्री पार्श्व उग्र कुल नभ सुचंद्र,
मिथ्यातम हर सत् ज्ञानचन्द्र;

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केवलज्ञानी सत् मग प्रकाश,
हूं नमत सदा रख मोक्ष-आश. १३५
(२४) श्री महावीर जिनस्तुति
(तोटक छंद)
तुम वीर! धवल गुण कीर्ति धरे,
जगमें शोभै गुण आत्म भरे;
जिम नभ शोभै शुचि चंद्रग्रहं,
सित कुंद समं नक्षत्र ग्रहं. १३६
हे जिन! तुम शासनकी महिमा,
भविभवनाशक कलिमांहि रमा;
निज-ज्ञान-प्रभा अनक्षीण-विभव,
मलहर गणधर प्रणमैं मत तव. १३७
हे मुनि! तुम मत स्याद्वाद अनघ,
द्रष्टेष्ट विरोध विना स्यात् वद;
तुमसे प्रतिपक्षी बाध सहित,
नहिं स्याद्वाद हैं दोष सहित. १३८
हे जिन! सुर असुर तुम्हें पूजें,
मिथ्यात्वी चित नहिं तुम पूजें;
तुम लोकत्रय हितके कर्ता,
शुचि ज्ञानमइ शिव-घर धर्ता. १३९

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हे प्रभु! गुणभूषण सार धरें,
श्री सहित सभा जन हर्ष करे;
तुम वपु कांति अति अनुपम है,
जगप्रिय शशि जीते रुचितम है. १४०
हे जिन! मायामद नाहिं धरो,
तुम तत्त्व-ज्ञानसे श्रेय करो;
मोक्षेच्छु कामकर वच तेरा,
व्रत-दमकर सुखकर मत तेरा. १४१
हे प्रभु! तव गमन महान हुआ,
शममत रक्षक भय हान हुआ;
जिनवर हस्ती मद स्रवन करे,
गिरि तटको खंडत गमन करै. १४२
परमत मृदुवचन-रचित भी है,
निज गुण संप्राप्ति रहित वह है;
तव मत नय-भंग विभूषित है,
सुसमन्तभद्र निर्दूषित है. १४३
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(माता विना बाळकना मननाए देशी)
सीमंधरदेवना दरिसण विणना, पुराय क्यांथी कोड......
हांहांरे प्रभु पुराय क्यांथी कोड;
दरिसण देजो अमोने.

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जगहितकारी अरिहाजीनी, ना’वे बीजी जोड......
हांहारे प्रभु ना’वे बीजी जोड; दरिसण० (टेक)
जिनवर एक अनेकी जगमां, तुज भक्ति छे मुज रगरगमां;
अनुपम शांतिधारी अमोने, धर्मना पंथे जोड......
हांहांरे विभु धर्मना पंथे जोड; द०सीमं०
आननज्योति प्रभुनी शोभे, मोहराय बहु देखी क्षोभे;
अनुपम ज्ञानना धारी अमोने, धर्मना पंथे जोड......
हांहांरे विभु धर्मना पंथे जोड; द०सीमं०
पुण्यतरु प्रभुकृपाए फळियो, मुज देवाधिदेव तुं मळियो;
अनुपम दर्शनधारी अमोने, धर्मना पंथे जोड....
हांहांरे विभु धर्मना पंथे जोड; द०सीमं०
जेम महीधर मेरु संगतथी, थाय कंचनता तृणमांहेथी;
अनुपम चारित्रधारी अमोने, धर्मना पंथे जोड.....
हांहांरे विभु धर्मना पंथे जोड; द०सीमं०
प्रभुनी संगे तेम संसारी, कर्मकलंकने दूर निवारी;
आतमनी ज्योत वरे शिवनारी, सेवकने कर्मथी छोड....
हांहांरे विभु सेवक नमे करजोड; द०सीमं०
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(उत्सव रंग वधामणाए देशी)
सीमंधरनाथजीने विनवुं, प्रभु अम घेर आवो,
प्रभु अम घेर आवो, हां हारे प्रभु अम घेर आवो.

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सेवक-स्वामी भावथी, नथी कोईनो दावो....(२); हां हांरे०
सीमंधरनाथजीने.....१
वीतराग! आप चित्तमां, रहुं भाग्यनी वात (२); हां हांरे०
पण आप मारा चित्तमां, रहो जगतात! (२); हां हांरे०
सीमंधरनाथजीने.....२
मारुं मन जो प्रसन्न तो, आपनी प्रसन्नता (२); हां हांरे०
आपश्रीना प्रसादथी, होय मननी समता (२); हां हांरे०
सीमंधरनाथजीने.....३
इंद्र पण असमर्थ छे, रूप-लक्ष्मी जोवाने (२); हां हांरे०
धरणेंद्र पण अशक्त छे, तुम गुण गावाने (२); स्र्हां हांरे०
सीमंधरनाथजीने....४
आपनी आणा पाळवा, अम शक्ति आपो (२); हां हांरे०
लळी लळी नमुं हुं आपने, दास कर्मने कापो (२); हां हांरे०
सीमंधरनाथजीने....५
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(मथुरामां खेल खेलीए देशी)
सीमंधरनाथ जिनराया, हो देव! त्रिभुवनराया,
त्रिभुवनराया प्रभु त्रिभुवनराया. सी० (टेक)
नाथ निरंजन भवभयभंजन;
शरणागत सुखदाया, हो देव त्रिभुवनराया. सी० १

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भवजलतारण दुःखनिवारण,
सुर नर जिनगुण गाया, हो देव त्रिभुवनराया. सी० २
अज्ञान पडलने दूर करनारा,
दर्शन अमृत पाया, हो देव त्रिभुवनराया सी० ३
जन्म-मरणना फेरा निवारी,
अजरामरपद पाया, हो देव त्रिभुवनराया. सी० ४
करुणासागर जिन! वंदन करुं छुं,
तुज सेवक गुण गाया, हो देव त्रिभुवनराया. सी० ५
श्री विदेही जिनस्तवन
(रखिया बंधाओ भैयाए देशी)
मूरति विदेहीजन प्यारी, मोहन गा......री......रे;
मोहन गा.......री.......रे, मूरति विदेही० मोहन० (टेक)
चार करमने वामी, केवळज्ञानना स्वामी;
वंदुं हुं अंतरजामी, मोहन गा.....री.......रे. मूरति०
कषायभाव मारी, चिद्रूपे लीनता जामी;
आतमतत्त्व विचारी, मोहन गा.......री.......रे. मूरति०
भवमां भमतो आयो, नाथ! में दर्शन पायो;
मूरति जोई लोभायो, मोहन गा.....री......रे. मूरति०