जाके दरस परमपद प्रापति,
अरु अनंत शिवसुख लहिये. भविक० १
निज स्वभाव निरमल ह्वै निरखत,
करम सकल अरि घट दहिये;
सिद्ध समान प्रगट इह थानक,
निरख निरख छबि उर गहिये. भविक० २
अष्ट कर्मदल भंज प्रगट भई,
चिन्मूरति मनु बन रहिये;
इहि स्वभाव अपनो पद निरखहु,
जो अजरामर पद चहिये. भविक० ३
त्रिभुवन माहि अकृत्रिम कृत्रिम,
वंदन नितप्रति निरवहिये;
महा पुण्यसंयोग मिलत है,
‘भईया’ जिन प्रतिमा सरदहिये. भविक० ४
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श्री जिनवाणी – स्तवन
(मेरी भावना)
जिनवाणी को को नहिं तारे, जिन० – टेक
मिथ्याद्रष्टि जगत निवासी, लही समकित निज काज सुधारे,
गौतम आदिक श्रुतिके पाठी, सुनत शब्द अघ सकल निवारे; जिन०
९६ ][ श्री जिनेन्द्र