परदेशी राजा छिनवादी, भेद सुतत्त्व भरम सब टारे,
पंचमहाव्रत धर तू ‘भैया’ मुक्तिपथ मुनिराज सिधारे.
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श्री जिनवाणी – स्तवन
(राग – मेरी भावना)
जिनवाणी सुनि सुरत संभारे, जिन० – टेक
सम्यग्द्रष्टि भवननिवासी, गह वृत केवल तत्त्व निहारे. जिन० १
भये धरणेन्द्र पद्मावति पलमें, जुगलनाग प्रभु पास उबारे;
बाहुबलि बहुमान धरत है, सुनत विनत शिवसुख अवधारे. जिन० २
गणधर सबै प्रथम धुनि सुनिके; दुविध परिग्रह संग निवारे,
गजसुकुमाल वरस वसुहीके, दिक्षा ग्रहत करम सब टारे. जिन० ३
मेघकुंवर श्रेणिकको नंदन, वीरवचन निजभवहिं चितारे;
औरहु जीव तरे जे ‘भैया’, ते जिनवचन सबै उपगारे. जिन० ४
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श्री जिनवाणी – स्तवन
(छप्पय)
बंदहु ॠषभ जिनेन्द्र, अजित संभव अभिनन्दन;
सुमति सु पद्म सुपार्श्व; बहुरि चन्द्रप्रभ वंदन;
सुविधि शीतल श्रेयांश, वासुपूजहिं सुखदायक,
विमल अनंत रु धर्म, शान्ति कुंथु जु शिवनायक;
स्तवन मंजरी ][ ९७
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