श्रावक पुनीत सोऊ विद्यमान यहां नाहिं,
सम्यक्के संत कोऊ जीव सरदहिये;
शास्त्रकी शरधा तामें बुद्धि अति तुच्छ रही,
पंचम समैमें कहो कैसे पंथ गहिये. ४
तूही वीतराग देव राग द्वेष टारि देख,
तूही तो कहावै सिद्ध अष्ट कर्म नासतैं;
तूही तो आचारज है आचरै जु पंचाचार,
तूही उवझाय जिनवाणीके प्रकाशतैं;
परको ममत्व त्याग तूही है सो ॠषिराय,
श्रावक पुनीत व्रत एकादश भासतें;
सम्यक् स्वभाव तेरो शास्त्र पुनि तेरी वाणी,
तूही ‘भैया’ ज्ञानी निजरूपके निवासतें. ५
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श्री जिनगुणमाला
(दोहा)
तीर्थंकर त्रिभुवन तिलक तारक तरन जिनंद;
तास चरन वंदन करौं, मनधर परमानंद. १
गुण छीयालिस संयुगत, दोष अठारह नाश;
ये लक्षण जा देवमें, नित प्रति वंदों तास. २
(चौपाई)
दश गुण जासु जनमतैं होय, प्रस्वेदादिक दोष न कोय,
निर्मलता मलरहित शरीर, उज्वल रुधिर वरण जिन खीर. ३
वज्र वृषभ नाराच प्रमान, सम सु चतुर संस्थान बखान;
शोभन रूप महा दुतिवन्त, परम सुगन्ध शरीर वसंत. ४
स्तवन मंजरी ][ ९९