वेदी माहिं अधिक द्युति धरै, दुदुंभि जरा मरण दुःख हरै;
तीन छत्र त्रिभुवन जयकार, समवशरणको यह अधिकार. १५
(दोहा)
ज्ञान अनंतमय आतमा, दर्शन जासु अनंत;
सुख अरु वीर्य अनंत बल, सो वंदों भगवंत. १६
इन छ्यावीसन गुणसहित, वर्तमान जिनदेव;
दोष अठारह नाशतैं करहिं भविक नित सेव. १७
(चौपाई)
क्षुधा त्रिषा न भयाकुल जास, जनम न मरन जरादिक नाश;
इंद्रीविषय विषाद न होय, विस्मय आठ मदहि नहि कोय. १८
राग रु दोष मोह नहि रंच, चिंता श्रम निद्रा नहि पंच;
रोग विना परस्वेद न दीस, इन दूषन विन है जगदीश. १९
(दोहा)
गुण अनंत भगवंतके, निहचै रूप बखान;
ये कहिये व्यवहारके, भविक लेहु उर आन. २०
‘भैया’ निजपद निरखतैं, दुविधा रहै न कोय;
श्री जिनगुणकी मालिका, पढें परम सुख होय. २१
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श्री पंचपरमेष्ठी – नमस्कार
(दोहा)
प्रातः समय श्री पंचपद वंदन कीजे नित्त;
भाव भगति उर आनिकै, निश्चय कर निज चित्त. १
स्तवन मंजरी ][ १०१