तामहि चहुं दिशि शिखरि उतंग, तिनको मान कहुं सरवंग;
दिशि पूरव गिरि तेरह सही, ताकी उपमा जाय न कही. ४
मध्य एक अंजनके रंग, शिखरि उतंग बन्यो सरवंग;
सहस चौरासी योजन मान, धूपरबत देख्यो भगवान. ५
ताके चहुं दिशि परबत चार, उज्ज्वल वरन महा सुखकार;
चौसठि सहस्र उतंग जु होय, दधिमुख नाम कहावे सोय. ६
इक इक दधिमुख परबत तास, द्वै द्वै रतिकर अचल निवास;
इक इक अरुण वरन गिरि मान, सहज चवालिस ऊर्द्धप्रमान. ७
इहविधि तेरह गिरिवर गने, ता परि चैत्य अकृत्रिम बने;
इक इक गिरिपर इक प्रासाद, ताकी रचना बनी अनाद. ८
इक जिनमंदिरको विस्तार, सुनहु भविक परमागमसार;
गिरिको शिखर वरत तिहिरूप, रत्नमयी प्रासाद अनूप. ९
इक चैत्यालय बिंब प्रमान, इकसो आठ अनूपम जान;
रत्नमणी सुंदर आकार, धनुष पांचसो ऊर्ध्व उदार. १०
इम तेरह पूरब दिशि कहे, ताको भेद जिनागम लहे;
छप्पनसो सोरह बिंब सबै, ताकी भावन भाऊं अबै. ११
अनंत ज्ञान जो आतमराम, सो प्रगटहि इह मुद्रा धाम;
लोक अलोक विलोकनहार, ता परदेशनि यह आकार. १२
अनंत काललों यही स्वरूप, सिद्धालय राजै चिद्रूप;
सुख अनंत प्रगटे इहि ध्यान, तातै जिनप्रतिमा परधान. १३
स्तवन मंजरी ][ १०३