ऐसी विभो त्यागत विलंब जिन कीन्हों नाहिं,
तेरे कहो केती निधि सोच क्यों करत हैं. २
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श्री जिन – स्तुति
(कवित्त)
देहधारी भगवान करे नाहीं खान पान,
रहै कोटि पूरबलों जगमें प्रसिधि है;
बोलता अमोल बोल जीभ होठ हालै नाहिं,
दैखैं अरु जानै सब, इन्द्री न अवधि है;
डोलत फिरत रहै डग न भरत कहै,
परसंग त्यागी संग देखो केती रिधि है;
ऐसी अचरज बात मिथ्या उर कैसें मात,
जानै सांची द्रष्टिवारो जाके ज्ञाननिधि है. १
देखत जिनंदजूको देखत स्वरूप निज;
देखत है लोकालोक ज्ञान उपजायके;
बोलत है बोल ऐसे बोलत न कोउ ऐसें,
तीन लोक कथनको देत है बतायके;
छहों काय राखिवेकी सत्य वैन भाखिवेकी,
परद्रव्य नाखिवेकी कहै समुझायके;
करम नसायवेकी आप निधि पायवेकी,
सुखसों अघायवेकी रिद्धि दै लखायके. २
स्तवन मंजरी ][ १११