अचानक परम वैद्य है रोगहारा,
यथा वैद्यने दीनका रोग टारा. ११
दशा जग अनित्यं, शरण है न कोई,
अहं मम मई दोष मिथ्यात्व वोई;
जरा-जन्म-मरणं सदा दुःख करे है,
तुही टाल कर्मं, परम शांति दे है. १२
खविजली सम चंचलं सुख विषयका,
करै वृद्धि तृष्णामई रोग जियका;
सदा दाह चित्तमें कुतृष्णा बढावे,
जगत दुःख भोगे, प्रभू हम बतावे. १३
जु है मोक्ष बन्धं, व है हेतु उनका,
बंधा अर खुला जिय, फलं जो छुटनका;
प्रभू स्याद्वादी, तुम्हीं ठीक कहते,
न एकांत मतके कभी पार लहते. १४
जहां इन्द्र भी हारता गुणकथनमें,
कहां शक्ति मेरी तुझी थुति करनमें;
तदपि भक्तिवश पुण्य यश गान करता;
प्रभू दीजिये नित शिवानन्द परता. १५
(४) श्री अभिनन्दन जिन – स्तुति
(छंद स्रग्विनी)
आत्मगुण वृद्धिते नाथ अभिनन्दना,
धर अहिंसा वधू, क्षांति सेवित घना;
स्तवन मंजरी ][ ३३
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