जिनं जितकषायं महत् पूज्य मुनिपति,
नमूं चंद्रप्रभ तू द्वितिय चंद्र जिनपति. ३६
हरैं भानुकिरणें यथा तम जगतका,
तथा अंग भामंडलं तम जगतका;
शुक्लध्यान दीपक जगाया प्रभुने,
हरा तम कुबोधं स्वयं ज्ञानभूने. ३७
स्वमत श्रेष्ठताका धरैं मद प्रवादी,
सुनें जिनवचनको तजें मद कुवादी;
यथा मस्त हाथी सुनें सिंहगर्जन,
तजैं मद तथा मोहका हो विसर्जन. ३८
तुही तीन भूमें परमपद प्रभु है,
करे कार्य अद्भुत परम तेज तू है;
जगत नेत्रधारी अनंतं प्रकाशी,
रहे नित सकल दुःखका तू विनाशी. ३९
तुंही चन्द्रमा भविकुमुदका विकाशी,
किया नाश सब दोष मल मेघराशी;
प्रगट सत् वचनकी किरणमाल व्यापी,
करो मुझ पवित्र तुही शुचि प्रतापी. ४०
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(९) श्री पुष्पदंत तीर्थंकर – स्तुति
(पद्धरी छंद)
हे सुविधि! आपने कहा तत्त्व,
जो दिव्यज्ञानसे तत् अतत्त्व;
३८ ][ श्री जिनेन्द्र