अपेक्षा सहित है स्वपर कार्यकारी,
विमलनाथ तुम तत्त्व ही अर्थकारी. ६१
यथा एक कारण नहीं कार्य करता,
सहायक उपादानसे कार्य सरता;
तथा नय कथन मुख्य गौणं करत हैं,
विशेष वा सामान्य सिद्धि करत है. ६२
हरएक वस्तु सामान्य और विशेषं,
अपेक्षा कृत भेद अभेदं सुलेखं;
यथा ज्ञान जगमें वही है प्रमाणं,
लखे एकदम आपपर तुम वखानं. ६३
वचन है विशेषण उसी वाच्यका ही,
जिसे वह नियमसे कहे अन्य नाहीं;
विशेषण विशेष्य न हो अति प्रसंगं,
जहां स्यात् पद हो न हो अन्य संगं. ६४
यथा लोह रसबद्ध हो कार्यकारी,
तथा स्यात् सुचिह्नित सुनय कार्यकारी;
कहा आपने सत्य वस्तु स्वरूपं,
मुमुक्षु भविक वन्दते आप रूपं. ६५
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(१४) श्री अनन्तनाथ – स्तुति
(पद्धरी छंद)
चिर चित्तवासी मोही पिशाच,
तन जिस अनंत दोषादि राच;
स्तवन मंजरी ][ ४३