ध्यानमय अग्निसे कर्मवन दग्ध कर,
सौख्य शाश्वत लिया सत्त्व – शंकर अमर. ७१
देव मानव भक्तिवृन्दसे सेवितं,
बुद्ध गणधर प्रपूजित महाशोभितं;
जिस तरह चंद्रमा नभ सुनिर्मल लसे,
तारका वेष्ठितं शांतिमय हुल्लसे. ७२
प्रातिहारज विभव आपके राजती,
देहसे भी नहीं रागता छाजती;
देव मानव सुहित मोक्षमग कह दिया,
होय शासनफलं यह न चित्तमें दिया. ७३
आपकी मन वचन कायकी सब क्रिया,
होय इच्छा विना कर्मकृत यह क्रिया,
हे मुने! ज्ञान विन है न तेरी क्रिया,
चित नहीं कर सकै भान अद्भुत क्रिया. ७४
आपने मानुषी भावको लांघकर,
देवगणसे महा पूज्यपन प्राप्त कर;
हो महादेव आप, हे धरमनाथजी!
दीजिये मोक्षपद हाथ श्री साथजी. ७५
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(१६) श्री शांतिनाथ – स्तुति
(नाराच छन्द)
परम प्रताप धर जु शांतिनाथ राज्य बहु किया,
महान शत्रुको विनाश सर्व जन सुखी किया;
स्तवन मंजरी ][ ४५