यह काम धरत बहु अहंकार,
त्रय लोक प्राणिगण विजयकार;
तुमरे ढिग पाई उदयहार,
तब लज्जित हुआ है अपार. ९१
तृष्णा सरिता अति ही उदार,
दुस्तर इह-परभव दुःखकार;
विद्या-नौका चढ रागरिक्त,
उतरे तुम पार प्रभु विरक्त. ९२
यमराज जगतको शोककार,
नित जरा जन्म द्वै सखा धार;
तुम यमविजयी लख हो उदास,
निज कार्य करन समरथ न तास. ९३
हे धीर! आपका रूप सार,
भूषण आयुध वसनादि टार;
विद्या दम करुणामय प्रसार,
कहता प्रभु दोष रहित अपार. ९४
तेरा वपु भामंडल प्रसार,
हरता सब बाहर तम अपार;
तव ध्यान तेजका है प्रभाव,
अंतर अज्ञान हरै कुभाव. ९५
सर्वज्ञ ज्योतिसे जो प्रकाश,
तेरी महिमाका जो विकाश;
स्तवन मंजरी ][ ४९
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