है कौन सचेतन प्राणी नाथ,
जो नमन करैं नहिं नाय माथ. ९६
तुम वचनामृत तत्त्व प्रकाश;
सब भाषामय होता विकाश;
सब सभा व्यापकर तृप्तकार,
प्राणिनको अमृतवत् विचार. ९७
तुम अनेकांत मत ही यथार्थ,
यातें विपरीत नहीं यथार्थ;
एकांत द्रष्टि है मृषा वाक्य,
निज घातक सर्व अयोग्य वाक्य. ९८
एकांती तपसी मान धार,
निज दोष निरख गज नयन धार;
ते अनेकांत खंडन अयोग्य,
तुझ मत लक्ष्मीके हैं अयोग्य. ९९
एकांती निज घातक जु दोष,
समरथ नहि दूर करण सदोष;
तुम द्वेष धार निज हननकार,
मानैं अवाच्य सब वस्तु सार. १००
सत् एक नित्य वक्तव्य वाक्य,
या तिन प्रतिपक्षी नय सुवाक्य,
सर्वथा कथनमें दोषरूप,
यदि स्याद्वाद हों पुष्टरूप. १०१
५० ][ श्री जिनेन्द्र