तब देव मनुज जग प्राणि सभी,
कर जोड नमन करते सुखधी. १०६
जिनकी मूरति है कनकमयी,
प्रसरी भामंडल रूपमयी;
वाणी जिनकी सत्-तत्त्वकथक,
स्यात्पदपूर्वे यतिगणरंजक. १०७
जिन आगे होई गलित माना,
एकान्ती तजैं वाद थाना;
विकसित सुवरण अम्बुज दलसे,
भू भी हंसती प्रभुपद तलसे. १०८
जिन-चंद्र वचन किरणे चमकैं,
चहुं ओर शिष्य यतिग्रह दमकैं;
निज आत्मतीर्थ अति पावन है,
भवसागर-जन इक तारन है. १०९
जिन शुकल ध्यान तप अग्नि बली,
जिससे कर्मौंंध अनंत जली;
जिनसिंह परम कृतकृत्य भये,
निःशल्य मल्लि हम शरण गये. ११०
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(२०) श्री मुनिसुव्रत जिन – स्तुति
(स्रग्विणी छन्द)
साधु-उचित व्रतोमें सुनिश्चित थये,
कर्म हर तीर्थंकर साधु-सुव्रत भये;
५२ ][ श्री जिनेन्द्र