इम सुगम मोक्षमग जग स्व-आधीन है,
नमिजिनं आप पूजे गुणाधीन है. ११६
आपने सर्ववित्! आत्मध्यानं किया,
कर्मबंध जला मोक्षमग कह दिया;
आपमें केवलज्ञान पूरण भया,
अनमती आप रवि-जुगनु सम हो गया. ११७
अस्ति नास्ति उभय वानुभय मिश्र तत्,
सप्तभंगीमयं तत् अपेक्षा स्वकृत;
त्रियमितं धर्ममय तत्त्व गाया प्रभू,
नैक नयकी अपेक्षा, जगतगुरु प्रभू! ११८
अहिंसा जगत् ब्रह्म परमं कही है,
जहां अल्प आरंभ वहां नहीं रही रहै;
अहिंसाके अर्थं तजा द्वय परिग्रह,
दयामय प्रभू वेष छोडा उपधिमय. ११९
आपका अंग भूषण, वचनसे रहित,
इन्द्रियां शांत जहं, कहत तुम कामजित;
उग्र शस्त्रं विना निर्दयी क्रोध जित,
आप निर्मोह, शममय, शरण राख नित. १२०
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५४ ][ श्री जिनेन्द्र