दोनों भ्राता प्रभु-भक्ति-मुदित,
वृषविनय-रसिक जननाथ उदित;
सहबंधु नेमिजिन-सभा गए,
युग चरणकमल वह नमत भए. १२६
भुवि काहि ककुद गिरनार अचल,
विद्याधरणी सेवित स्वशिखर;
हैं मेघ पटल छाए जिस तट,
तव चिह्न उकेरे वज्र-मुकुट. १२७
इम सिद्धक्षेत्र धर तीर्थ भया,
अब भी ॠषिगणसे पूज्य थया;
जो प्रीति हृदयधर आवत हैं,
गिरनार प्रणम सुख पावत हैं. १२८
जिननाथ! जगत् सब तुम जाना,
युगपत् जिम करतल अमलाना;
इंद्रिय वा मन नहिं घात करें,
न सहाय करैं, इम ज्ञान धरें. १२९
यातें हे जिन! बुधनुत तव गुण,
अद्भुत प्रभावधर न्याय सगुण;
चिंतन कर मन हम लीन भए,
तुमरे प्रणमन तल्लीन भए. १३०
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५६ ][ श्री जिनेन्द्र