लोकानुप्रेक्षा ]
अर्थः — सम्मूर्च्छन मनुष्य नियमथी आर्यखंडमां ज होय अने ते लब्ध्यपर्याप्तक ज होय छे. वळी नारकी तथा देवना, पर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तना भेदथी, चार प्रकार छे. ए प्रमाणे तिर्यंचना पंचाशी भेद, मनुष्यना नव भेद, नारकी तथा देवना चार भेद एम बधाय मळी अठ्ठाणुं भेद थया. घणाने समानताथी भेगा करी — संक्षेपताथी संग्रह करी — कहेवामां आवे तेने समास कहे छे. अहीं घणा जीवोनो संक्षेप करीने कहेवुं तेने जीवसमास जाणवो. ए प्रमाणे जीवसमास कह्या.
हवे पर्याप्तिनुं वर्णन करे छेः —
अर्थः — आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा अने मनना परिणमननी प्रवृत्तिमां जे सामर्थ्य छे तेना छ प्रकार छे.
भावार्थः — आत्माने यथायोग्य कर्मनो उदय थतां आहारादि ग्रहणनी शक्ति होवी तेने शक्तिरूप पर्याप्ति कहीए छीए. तेना छ प्रकार छे.
हवे शक्तिनुं कार्य कहे छेः —