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अर्थः — ए शक्तिनी प्रवृत्तिनी पूर्णताना कारणरूप जे पुद्गलस्कंध छे तेनी प्रगटपणे निष्पत्ति अर्थात् पूर्णता होवी तेने पर्याप्ति कहे छे एम जिनेन्द्रदेवे कह्युं छे.
हवे पर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तनो काळ कहे छेः —
अर्थः — आ जीव, पर्याप्तिने ग्रहण करतो थको ज्यां सुधी मनपर्याप्तिने पूर्ण न करे त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्त कहे छे, अने ज्यारे मनपर्याप्ति पूर्ण थाय छे त्यारे तेने पर्याप्त कहे छे.
भावार्थः — अहीं संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवनी अपेक्षा लक्षमां लई आ प्रमाणे कथन कर्युं छे; परंतु अन्य ग्रंथोमां ज्यां सुधी शरीरपर्याप्ति पूर्ण न थाय त्यां सुधी ते निर्वृत्त्यपर्याप्त छे. ए प्रमाणे सर्वजीव-आश्रित कथन छे.
बनावे छे. ज्यां सुधी शरीरपर्याप्ति पूर्ण थती नथी त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहे छे.