Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 136.

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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
तस्याः एव कारणानां पुद्गलस्कन्धानां या स्फु टं निष्पत्तिः
सा पर्याप्तिः भण्यते षड्भेदाः जिनवरेन्द्रैः ।।१३५।।

अर्थःए शक्तिनी प्रवृत्तिनी पूर्णताना कारणरूप जे पुद्गलस्कंध छे तेनी प्रगटपणे निष्पत्ति अर्थात् पूर्णता होवी तेने पर्याप्ति कहे छे एम जिनेन्द्रदेवे कह्युं छे.

हवे पर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तनो काळ कहे छेः

पज्जत्तिं गिह्णंतो मणुपज्जत्तिं ण जाव समणोदि
ता णिव्वत्तिअपुण्णो मणुपुण्णो भण्णदे पुण्णो ।।१३६।।
पर्याप्तिं गृह्णन् मनःपर्य्याप्तिं न यावत् समाप्नोति
तावत् निर्वृत्त्यपर्याप्तकः मनःपूर्णः भण्यते पूर्णः ।।१३६।।

अर्थःआ जीव, पर्याप्तिने ग्रहण करतो थको ज्यां सुधी मनपर्याप्तिने पूर्ण न करे त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्त कहे छे, अने ज्यारे मनपर्याप्ति पूर्ण थाय छे त्यारे तेने पर्याप्त कहे छे.

भावार्थःअहीं संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवनी अपेक्षा लक्षमां लई आ प्रमाणे कथन कर्युं छे; परंतु अन्य ग्रंथोमां ज्यां सुधी शरीरपर्याप्ति पूर्ण न थाय त्यां सुधी ते निर्वृत्त्यपर्याप्त छे. ए प्रमाणे सर्वजीव-आश्रित कथन छे.

त्तज्जपस्स य उदये णियणियपज्जत्तिणिट्ठिदो होदि
जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति-अपुण्णगो ताव ।।
(गो. जी. गा. १२०)
पर्याप्तस्य च उदये निजनिजपर्याप्तिनिष्ठितो भवति
यावत् शरीरं अपूर्णं निर्वृत्त्यपूर्णकः तावत् ।।
अर्थपर्याप्ति नामना नामकर्मना उदयथी जीव पोतपोतानी पर्याप्ति

बनावे छे. ज्यां सुधी शरीरपर्याप्ति पूर्ण थती नथी त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहे छे.