Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 141-142.

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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
दुविहाणमपुण्णाणं इगिबितिचउरक्ख-अंतिमदुगाणं
तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयव्वा ।।१४१।।
द्विविधानां अपूर्णानां एकद्वित्रिचतुरक्षान्तिमद्विकानां
त्रयः चत्वारः पञ्च षट् सप्त च क्रमेण प्राणा ज्ञातव्याः ।।१४१।।

अर्थःबंने प्रकारना अपर्याप्त ( निर्वृत्त्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक) जे एकेन्द्रिय, बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय. चार इन्द्रिय, असंज्ञी तथा संज्ञीपंचेन्द्रियोने त्रण, चार, पांच, छ, सात ए प्रमाणे अनुक्रमे प्राण होय छे.

भावार्थःनिर्वृत्त्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रियोने त्रण, बे इन्द्रियने चार, त्रण इन्द्रियने पांच, चार इन्द्रियने छ तथा असंज्ञी संज्ञीपंचेन्द्रियने सात ए प्रमाणे प्राण होय छे.

हवे विकलत्रयजीवोनुं स्थान दर्शावे छेः

बितिचउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु
चरिमे दीवे अद्धे चरम-समुद्दे वि सव्वेसु ।।१४२।।
द्वित्रिचतुरक्षाः जीवाः भवन्ति नियमेन कर्मभूमिषु
चरमे द्वीपे अर्द्धे चरमसमुद्रे अपि सर्वेषु ।।१४२।।

अर्थःबेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ए त्रण विकलत्रय कहेवाय छे. ते जीवो नियमथी कर्मभूमिमां, अंतना अर्धा द्वीपमां अने अंतना आखा समुद्रमां होय छे, भोगभूमिमां होता नथी.

भावार्थःपांच भरत, पांच ऐरावत अने पांच विदेह ए कर्मभूमिनां क्षेत्रमां तथा अंतना स्वयंप्रभद्वीपनी वच्चे स्वयंप्रभ पर्वत छे ते पर्वतनी पाछळना अर्धा स्वयंप्रभद्वीपमां तथा अंतना स्वयंभूरमण नामना आखा समुद्रमां आ विकलत्रय जीवो छे, तेथी अन्य जग्याए नथी.