Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 143-145.

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लोकानुप्रेक्षा ]

[ ८७

हवे अढी द्वीपनी बहार तिर्यंचो छे तेनी व्यवस्था हेमवत्पर्वत माफक छे एम कहे छेः

माणुसखित्तस्स बहिं चरिमे दीवस्स अद्धयं जाव
सव्वत्थे वि तिरिच्छा हिमवदतिरिएहिं सारिच्छा ।।१४३।।
मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः चरमे द्वीपस्य अर्द्धकं यावत्
सर्वत्र अपि तिर्यञ्चः हैमवततिर्यग्भिः सदृशाः ।।१४३।।

अर्थःमनुष्यक्षेत्रनी बहारमानुषोत्तर पर्वतनी पेली बाजुथी अंतना स्वयंप्रभद्वीपना अर्धा भागनी आ बाजु सुधीना वच्चेना सर्व द्वीपसमुद्रनां तिर्यंचो छे ते हैमवत्क्षेत्रना तिर्यंचो जेवा छे.

भावार्थःहेमवत्क्षेत्रमां जघन्यभोगभूमि छे. मानुषोत्तर पर्वतथी आगळना असंख्यात द्वीप-समुद्र तथा अर्धा स्वयंप्रभ नामना छेल्ला द्वीप सुधी सर्व ठेकाणे जघन्यभोगभूमि जेवी रचना छे अने त्यांना तिर्यंचोनां आयुष्य-काय हेमवत्क्षेत्रना तिर्यंचो जेवां छे.

हवे जलचरजीवोनां स्थान कहे छे.

लवणोए कालोए अंतिमजलहिम्मि जलयरा संति
सेससमुद्देसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण ।।१४४।।
लवणोदके कालोदके अन्तिमजलधौ जलचराः सन्ति
शेषसमुद्रेषु पुनः न जलचराः सन्ति नियमेन ।।१४४।।

अर्थःलवणोदधि समुद्रमां, कालोदधि समुद्रमां तथा अंतना स्वयंभूरमण समुद्रमां जलचरजीवो छे, बाकीना वच्चेना समुद्रोमां नियमथी जलचरजीवो नथी.

हवे देवनां स्थान कहे छे. त्यां प्रथम भवनवासी-व्यंतरनां स्थान कहे छेः

खरभायपंकभाए भावणदेवाण होंति भवणाणि
विंतरदेवाण तहा दुह्णं पि य तिरियलोए वि ।।१४५।।