Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 153-155.

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लोकानुप्रेक्षा ]

[ ९१

भाग काळ सुधी ज न थाय ए प्रमाणे अन्य ग्रंथोमां कह्युं छे. बाकीना सर्व जीव निरंतर ऊपजे छे.

हवे जीवोनी संख्या द्वारा अल्प-बहुत्व कहे छेः
मणुयादो णेरइया णेरइयादो असंखगुणगुणिया
सव्वे हवंति देवा पत्तेयवणप्फ दी तत्तो ।।१५३।।
मनुजात् नैरयिकाः नैरयिकात् असंख्यातगुणगुणिताः
सर्वे भवन्ति देवाः प्रत्येकवनस्पतयः ततः ।।१५३।।

अर्थःमनुष्योथी नारकी असंख्यातगुणा छे, नारकीओथी बधा देव असंख्यातगुणा छे अने देवोथी प्रत्येकवनस्पतिजीव असंख्यातगुणा छे.

पंचक्खा चउरक्खा लद्धियपुण्णा तहेव तेयक्खा
वेयक्खा वि य कमसो विसेससहिदा हु सव्वसंखाए ।।१५४।।
पञ्चाक्षाः चतुरक्षाः लब्ध्यपर्याप्ताः तथैव त्र्यक्षाः
द्वयक्षाः अपि च क्रमशः विशेषसहिताः स्फु टं सर्वसंख्यया ।।१५४।।

अर्थःपंचेन्द्रियथी चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रियथी त्रीन्द्रिय अने त्रीन्द्रियथी बेइन्द्रियए लब्ध्यपर्याप्तकजीव संसंख्या द्वारा अनुक्रमे विशेष अधिक छे. कंईक अधिकने विशेषाधिक कहे छे.

चउरक्खा पंचक्खा वेयक्खा तह य जाण तेयक्खा
एदे पज्जत्तिजुदा अहिया अहिया कमेणेव ।।१५५।।
चतुरक्षाः पंञ्चाक्षाः द्वयक्षाः तथा च जानीहि त्र्यक्षाः
एते पर्याप्तियुताः अधिकाः अधिकाः क्रमेण एव ।।१५५।।

अर्थःचतुन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, बे इन्द्रिय तेवी ज रीते त्रण इन्द्रियए पर्याप्ति सहित जीवो अनुक्रमथी अधिक अधिक छे एम जाणो.