Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 173-174.

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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
अवसर्प्पिण्याः प्रथमे काले मनुजाः त्रिकोशोत्सेधाः
षष्ठस्य अपि अवसाने हस्तप्रमाणाः विवस्त्राः च ।।१७२।।

अर्थःअवसर्पिणीना पहेला काळमां मनुष्योनो देह त्रण कोश ऊंचो छे तथा छठ्ठा काळना अंतमां मनुष्योनो देह एक हाथ ऊंचो छे. वळी छठ्ठा काळना मनुष्यो वस्त्रादिथी रहित होय छे.

हवे एकेन्द्रिय जीवोनो जघन्य देह कहे छेः

सव्वजहण्णो देहो लद्धियपुण्णाण सव्वजीवाणं
अंगुलअसंखभागो अणेयभेओ हवे सो वि ।।१७३।।
सर्वजघन्यः देहः लब्ध्यपर्याप्तानां सर्वजीवानाम्
अङ्गुलाऽसंख्यातभागः अनेकभेदः भवेत् सः अपि ।।१७३।।

अर्थःलब्ध्यपर्याप्तक सर्व जीवोनो देह घनअंगुलना असंख्यातमा भाग छे अने ते सर्व जघन्य छे तथा तेमां पण अनेक भेद छे.

भावार्थःएकेन्द्रिय जीवोनो जघन्य देह पण नानोमोटो होय छे अने ते घनांगुलना असंख्यातमा भागमां पण अनेक भेद छे. गोम्मटसारमां अवगाहनाना चोसठ भेदोनुं वर्णन छे, त्यांथी ते जाणवुं.

हवे बे इन्द्रिय आदिनी जघन्य अवगाहना कहे छेः

बितिचउपंचक्खाणं जहण्णदेहो हवेइ पुण्णाणं
अंगुलअसंखभागो संखगुणो सो वि उवरुवरिं ।।१७४।।
द्वित्रिचतुःपञ्चाक्षाणां जघन्यदेहः भवति पर्याप्तानाम्
अंङ्गुलाऽसंख्यातभागः संख्यातगुणः सः अपि उपर्युपरि ।।१७४।।

अर्थःबे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोनो जघन्यदेह घनांगुलना असंख्यातमा भागे छे अने ते पण उपर उपर संख्यात गणो छे.