Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration).

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[ ११ ]

स्वयं पाकीने कर्मो खरी जाय ते, चारेय गतिओना जीवोने होय छे; अने अविपाक निर्जरा अंदर शुद्ध परिणतियुक्त ज्ञानीने विशेषतः व्रती जीवोने तप द्वारा, थाय छे. परमार्थनये त्रिकाळशुद्ध जीवने निर्जरा पण नथी, तेथी द्रव्यद्रष्टिए आत्माने सदा निर्जराभावथी रहित एकरूप पूर्ण शुद्ध चिंतववो जोईए.

लोक-अनुप्रेक्षाःजीवादि पदार्थोनो समूह ते लोक छे. लोकना त्रण विभाग छे. अधोलोक, मध्यलोक अने ऊर्ध्वलोक. नीचे सात नरक, मध्यमां असंख्यात द्वीप-समुद्र अने उपर त्रेसठ भेद सहित स्वर्ग छे. अने सौथी उपर मोक्ष छे. अशुभोपयोगथी नरक अने तिर्यंच गति प्राप्त थाय छे, शुभोपयोगथी देव अने मनुष्य गतिनां सुख मळे छे अने शुद्धोपयोगथी जीवने मोक्ष प्राप्त थाय छे.

‘ते ते भोग्य विशेषनां, स्थानक द्रव्य स्वभाव;
गहन वात छे शिष्य आ, कही संक्षेपे साव.’

आ रीते लोकना स्वरूपनो विचार करवो जोईए.

बोधिदुर्लभ-अनुप्रेक्षाःसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्रनी एकतारूप शुद्ध परिणति ‘बोधि’ छे; तेनी प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ छे. तेनी दुर्लभतानो वारंवार विचार करवो ते बोधिदुर्लभ-अनुप्रेक्षा छे. कर्मोदयजन्य पर्यायो तेम ज क्षायोपशमिक ज्ञान हेय छे अने कर्मनिरपेक्ष त्रिकाळशुद्ध निज आत्मद्रव्य उपादेय छेएवो अंतरमां द्रढ निर्णय ते सम्यग्ज्ञान छे. ज्ञायकस्वभावी निज आत्मद्रव्य ‘स्व’ छे अने बाकी बधुंद्रव्यकर्म, भावकर्म ने नोकर्म‘पर’ छे. आ रीते स्व-परना ने स्वभाव-विभावना स्वरूपनुं चिंतवन करवाथी हेय-उपादेयनुं ज्ञान थाय छे, अर्थात् समस्त परद्रव्य ने परभाव हेय छे अने स्वद्रव्य उपादेय छे. निश्चयनये हेय-उपादेयना विकल्प पण आत्मानुं स्वरूप नथी. मुनिराज भवनो अंत लाववा माटे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक ‘बोधि’नुं वारंवार अनुप्रेक्षण करे छे.

धर्म-अनुप्रेक्षाःमोह अने क्षोभ रहित आत्मानी निर्मळ परिणति ‘धर्म’ छे. धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. स्वानुभूतियुक्त निज शुद्धात्मदर्शन विना श्रावकधर्म के मुनिधर्मकोई धर्म संभवी शकतो नथी. श्रावकधर्मना दर्शनप्रतिमा