आदि अगियार भेद छे अने मुनिधर्मना उत्तम क्षमा आदि दस भेद छे. श्रावकधर्म मोक्षनुं परंपराए कारण छे अने मुनिधर्म साक्षात् कारण छे. माटे शुद्धपरिणतिमां श्रावकधर्मथी आगळ वधी जे मुनिधर्ममां प्रवृत्त थाय ते अत्यासन्नभव्यजीव शीघ्र मोक्ष प्राप्त करे छे. सम्यग्द्रष्टि श्रावक के मुनिनो जे व्रतादि शुभप्रवृत्तिरूप आचारधर्म छे ते परमार्थे ‘धर्म’ नथी. परंतु नीचली दशामां निर्मळ परिणति साथे ते हठ विना सहज वर्ततो होवाथी तेने उपचारथी ‘धर्म’ कहेवामां आवे छे. माटे शुभास्रवरूप व्रतादिमय श्रावकधर्म के मुनिधर्म
चिंतन करवुं.
अहो! परम वैराग्यनी जननी एवी आ बार अनुप्रेक्षाओनो महिमा शुं कथी शकाय! आ बार अनुप्रेक्षाओ ज खरेखर प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना अने समाधि वगेरे छे. माटे आ अनुप्रेक्षाओनुं निरंतर चिंतन करवुं जोईए. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के निश्चय अने व्यवहारथी कथवामां आवेली आ अनुप्रेक्षाओनुं जे शुद्ध मनथी चिंतवन करे छे ते परम निर्वाणने पामे छे.
प्राकृतभाषामां निबद्ध ४९१ गाथा द्वारा ‘स्वामी कुमार’ मुनिराजे आ कार्तिकेयानुप्रेक्षामां अनित्यादि बार भावनाओनी साथे साथे, तेमनी साथे बंधबेसता अनेक विषयोनुं घणी ज सुंदर अने सुगम रीते निरूपण कर्युं छे. ते ते विषयनुं निरूपण करनारी गाथाओनी भाषा एटली सरळ, स्पष्ट, मधुर अने तलस्पर्शी छे के एकाग्रचित्ते अध्ययन करनारने तेमां भरेला, ज्ञान- वैराग्यने सींचनारा, भावोथी हृदय आह्लादित थई जाय छे. अध्रुव आदि प्रत्येक अनुप्रेक्षानुं ते ते प्रकारनी शुद्धिए परिणत आत्मद्रव्यनुं वैराग्यप्रेरक तेम ज उपशान्तरसयुक्त हृदयग्राही चित्रण आपीने ते ते अनुप्रेक्षानी प्रायः अंतिम एक
एवुं मीठुं अने करुणारसभीनुं संबोधन कर्युं छे के जेनाथी भव्य जीवोने रोमांच खडा थई जाय. हे भव्यजीव! तुं समस्त विषयोने क्षणभंगुर सांभळी तेम ज महामोह छोडी, तारा अंतःकरणने निर्विषय – विषय रहित – कर, जेथी तुं उत्तम सुखने प्राप्त थईश....हे भव्य! तुं परमश्रद्धापूर्वक दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप आत्माना शरणनुं सेवन कर! आ संसारमां परिभ्रमण