करता जीवोने निज आत्मा सिवाय अन्य कोई शरण नथी.....हे भव्यात्मा! सर्वप्रकारे उद्यम करी मोह छोडी तुं ए आत्मस्वभावनुं चिंतवन कर के जेथी संसारपरिभ्रमणनो सर्वथा नाश थाय......हे भव्यात्मा! तुं उद्यम करीने जीवने शरीरथी सर्व प्रकारे भिन्न जाण! तेने जाणतां बाकीनां सर्व परद्रव्यो तत्क्षण छोडवा योग्य भासशे...इत्यादि.
कार्तिकेयानुप्रेक्षा ‘द्वादश अनुप्रेक्षा’ विषयनो संभवतः सौथी मोटो ग्रंथ छे तेमां ग्रंथकारे ‘लोक-अनुप्रेक्षा’ (गाथा ११५ थी २८३) अने धर्म-अनुप्रेक्षा’ (गाथा ३०२ थी ४३५) नो घणी गाथाओमां विस्तार करीने द्रव्यानुयोगना तेम ज धर्म-आराधनाना अनेक विषयो आवरी लीधा छे. धर्मानुप्रेक्षाना वर्णन पछी तेनी चूलिकारूपे अनशन आदि बार तपोनुं पण एकावन गाथाओमां (गाथा ४३८ थी ४८८) घणुं सुंदर वर्णन कर्युं छे.
‘लोकभावना’मां आवेली, द्रव्यानुयोगना सिद्धान्तोनुं निरूपण करनारी (गाथा १७६ थी २८०) गाथाओमांथी निम्न गाथाओ विशेष अनुप्रेक्षणीय छेः १७८, १७९, १८०, १९१, २००, २०१, २०२, २०४, २०५; वस्तुमां कारणकार्यनी व्यवस्थानुं निरूपण करनारी गाथाओः २२२ थी २२३; गाथा २३७ थी २४६मां द्रव्य-गुण-पर्यायना स्वरूपवर्णन विषे गाथा २४३मां कह्युं छे के – जो ‘द्रव्यमां पर्यायो छे ते पण विद्यमान छे अने तिरोहित एटले ढंकायेला छे’ एम मानीए तो उत्पत्ति कहेवी ज विफल (व्यर्थ) छे. गाथा २४६मां कह्युं छेः द्रव्य अने पर्यायमां (सर्वथा) भेद माने छे तेने कहे छे के हे – मूढ! जो तुं द्रव्य अने पर्यायमां वस्तुतः भेद माने छे तो द्रव्य अने पर्याय बंनेनी निरपेक्ष सिद्धि नियमथी प्राप्त थाय छे. एम मानतां द्रव्य अने पर्याय जुदी वस्तु ठरे छे, पण तेमां धर्मधर्मीपणुं ठरतुं नथी.
आगळ ‘धर्म-अनुप्रेक्षा’ना अधिकारमां श्रावकधर्म अने मुनिधर्मना वर्णन पहेलां सम्यक्त्वनुं माहात्म्य बतावतां गाथा ३२५मां कह्युं छे के – सर्व रत्नोमां पण महारत्न सम्यक्त्व छे. वस्तुनी सिद्धि करवाना उपायरूप सर्व योग, मंत्र, ध्यान आदिमां सम्यक्त्व उत्तम योग छे, कारण के — सम्यक्त्वथी मोक्ष सधाय छे. अणिमादि ॠद्धिओमां पण सम्यक्त्व महान ॠद्धि छे. घणुं शुं कहीए! सर्व सिद्धि करवावाळुं आ सम्यक्त्व ज छे. गाथा ३२६मां कह्युं छे के – सम्यक्त्वगुण सहित जे पुरुष प्रधान (श्रेष्ठ) छे ते देवोना इन्द्रोथी तेम ज