Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration).

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मनुष्योना इन्द्रो चक्रवर्ती आदिथी वंदनीय थाय छे; अने व्रत रहित होय तोपण नाना प्रकारनां स्वर्गादिकनां उत्तम सुख पामे छे. गाथा ३२७मां कह्युं छे केसम्यग्द्रष्टि जीव दुर्गतिना कारणरूप अशुभ कर्मोने बांधतो नथी, परंतु आगळना घणा भवोमां बांधेलां पापकर्मोनो पण नाश करे छे. अहो! सम्यक्त्वनो ए अनुपम महिमा! माटे श्रीगुरुनो उपदेश छे केसर्व प्रथम पोताना सर्वस्व उपायउद्यमयत्नथी पण एक मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्त्व अवश्य अंगीकार करवुं.

भाषानुवादना कर्ता पं. जयचंद्रजी छाबडा, आ ग्रंथनी पीठिका लखतां, लखे छे के‘त्यां प्रथम एक गाथामां मंगलाचरण करी बे गाथामां बार अनुप्रेक्षानां नाम कह्यां छे. ओगणीस गाथाओमां अध्रुवानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, नव गाथाओमां अशरणानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे , बेंताळीश गाथाओमां संसारानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे,तेमां चार गतिओनां दुःखोनुं, संसारनी विचित्रतानुं अने पंचपरावर्तनरूप परिभ्रमणनुं वर्णन छे, छ गाथाओमां एकत्वानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, त्रण गाथाओमां अन्यत्वानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, पांच गाथाओमां अशुचित्वानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, सात गाथाओमां आस्रवानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, सात गाथाओमां संवरानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, तेर गाथाओमां निर्जरानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, एकसो ओगणसीत्तेर गाथाओमां लोकानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे.

तेमां, आ लोक छ द्रव्योनो समूह छे; अनंत आकाशद्रव्यना मध्यमां जे जीव-अजीव द्रव्य छे तेने ‘लोक’ कहे छे, ते ‘लोक’ पुरुषाकाररूप चौद राजु ऊंचो छे अने तेनुं घनरूप क्षेत्रफळ करतां त्रणसो तेंताळीश राजु थाय छे; अने ते जीव-अजीव द्रव्योथी भरेलो छे. त्यां प्रथम जीवद्रव्यनुं वर्णन कर्युं छे अने तेना अठ्ठाणुं जीवसमास कह्या छे, ते पछी पर्याप्तिओनुं वर्णन कर्युं छे, लोकमां जे जीव ज्यां ज्यां रहे छे तेनुं वर्णन करी तेनी संख्या तेनुं अल्प- बहुत्व तथा तेनां आयु-कायनुं प्रमाण कह्युं छे. वळी कोई अन्यवादी जीवनुं स्वरूप अन्यप्रकाररूप माने छे तेनुं युक्तिपूर्वक निराकरण कर्युं छे. बहिरात्मा- अंतरात्मा-परमात्मानुं वर्णन करी कह्युं छे के अंतःतत्त्व तो जीव छे अने अन्य बधां बाह्यतत्त्व छे;

एम कही जीवोनुं निरूपण कर्युं छे. त्यार बाद अजीवनुं

निरूपण छेत्यां पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य तथा काळद्रव्यनुं