Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 234-235.

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दोष आवे. परंतु एम एकरूप कदी पण थतो नथी ए प्रगट छे.
हवे सर्वथा एकरूप मानवामां दूषण दर्शावे छेः
अहवा बंभसरूवं एक्कं सव्वं पि मण्णदे जदि हि
चंडालबंभणाणं तो ण विसेसो हवे कोवि ।।२३४।।
अथवा ब्रह्मस्वरूपं एकं सर्वं अपि मन्यते यदि हि
चाण्डालब्राह्मणानां तत् न विशेषः भवेत् कः अपि ।।२३४।।
अर्थःजो सर्वथा एक ज वस्तु मानी बधुंय ब्रह्मनुं स्वरूप
मानीए तो ब्राह्मण अने चांडालनो कांई पण भेद रहेतो नथी.
भावार्थःसर्व जगतने एक ब्रह्मस्वरूप मानीए तो नानां रूप
(भिन्न-भिन्नरूप) ठरतां नथी. वळी ‘अविद्याथी नानां रूप देखाय छे’
एम मानीए तो ए अविद्या कोनाथी उत्पन्न थई ते कहो? जो ‘ब्रह्मथी
थई’ एम कहो तो ते ब्रह्मथी भिन्न छे के अभिन्न छे? अथवा
सत्रूप छे के असत्रूप छे? अथवा ते एकरूप छे के अनेकरूप छे?
ए प्रमाणे विचार करतां एमांनुं कांई ठरतुं नथी. माटे वस्तुनुं स्वरूप
अनेकान्त ज सिद्ध थाय छे अने ए ज सत्यार्थ छे.
हवे तत्त्वने अणुमात्र मानवामां दूषण दर्शावे छेः
अणुपरिमाणं तच्चं अंसविहीणं च मण्णदे जदि हि
तो संबंधाभावो तत्तो वि ण कज्जसंसिद्धि ।।२३५।।
अणुपरिमाणं तत्त्वं अंशविहीनं च मन्यते यदि हि
तत् सम्बन्धाभावः ततः अपि न कार्यसंसिद्धिः ।।२३५।।
अर्थःजो एक वस्तु सर्वगत-व्यापक न मानवामां आवे पण
अंशरहित, अणुपरिमाण तत्त्व मानवामां आवे तो बे अंशना तथा पूर्व
-उत्तर अंशना संबंधना अभावथी एवी अणुमात्र वस्तुथी कार्यनी सिद्धि
थती नथी.
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा