Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 240-241.

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भावार्थःए ज ध्रुवपणुं छे के जीव, सत्ता अने चेतनाथी तो
ऊपजतो-विणसतो नथी अर्थात् जीव, कोई नवो ऊपजतो के विणसतो
नथी.
हवे द्रव्यपर्यायनुं स्वरूप कहे छेः
अण्णइरूवं दव्वं विसेसरूवो हवेइ पज्जाओ
दव्वं पि विसेसेण हि उप्पज्जदि णस्सदे सददं ।।२४०।।
अन्वयिरूपं द्रव्यं विशेषरूपः भवति पर्यायः
द्रव्यं अपि विशेषेण हि उत्पद्यते नश्यति सततम् ।।२४०।।
अर्थःजीवादि वस्तु अन्वयरूप (सामान्यरूप) थी द्रव्य छे
अने ते ज विशेषरूपथी पर्याय छे. वळी विशेषरूपथी द्रव्य पण निरंतर
ऊपजे-विणसे छे.
भावार्थःअन्वयरूप पर्यायोमां सामान्यभावने द्रव्य कहे छे
तथा विशेषभाव छे ते पर्याय छे. तेथी विशेषरूपथी द्रव्यने पण उत्पाद-
व्ययस्वरूप कहे छे. परंतु एम नथी के पर्याय, द्रव्यथी जुदो ज ऊपजे
विणसे छे. अभेदविवक्षाथी द्रव्य ज ऊपजे-विणसे छे तथा भेदविवक्षाथी
(द्रव्य अने पर्यायने) जुदा पण कहीए छीए.
हवे गुणनुं स्वरूप कहे छेः
सरिसो जो परिणामो अणाइणिहणो हवे गुणो सो हि
सो सामण्णसरूवो उप्पज्जदि णस्सदे णेय ।।२४१।।
सदृशः यः परिणामः अनादिनिधनः भवेत् गुणः सः हि
सः सामान्यस्वरूपः उत्पद्यते नश्यति नैव ।।२४१।।
अर्थःद्रव्यनो जे परिणाम (भाव) सद्रश अर्थात् पूर्व-उत्तर
बधीय पर्यायोमां समान होय-अनादिनिधन होय ते ज गुण छे. अने
ते सामान्यस्वरूपथी ऊपजतो-विणसतो नथी.
लोकानुप्रेक्षा ]
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