Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 244-245.

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अर्थःजो ‘द्रव्यमां पर्यायो छे ते पण विद्यमान छे अने
तिरोहित एटले ढंकायेला छे’ एम मानीए तो उत्पत्ति कहेवी ज विफल
(व्यर्थ) छे. जेम देवदत्त कपडाथी ढंकायेलो हतो तेने उघाड्यो एटले कहे
के ‘आ ऊपज्यो’, पण एम ऊपजवुं कहेवुं ते वास्तविक नथी
व्यर्थ छे;
तेम द्रव्यमां पर्याय ढांकीऊघडीने ऊपजती कहेवी ते परमार्थ नथी. माटे
द्रव्यमां अविद्यमान पर्यायनी ज उत्पत्ति कहीए छीए.
सव्वाणं पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती
कालाईलद्धीए अणाइणिहणम्मि दव्वम्मि ।।२४४।।
सर्वेषां पर्यायाणां अविद्यमानानां भवति उत्पत्तिः
कालादिलब्ध्या अनादिनिधने द्रव्ये ।।२४४।।
अर्थःअनादिनिधन द्रव्यमां काळादि लब्धिथी सर्व पर्यायोनी
अविद्यमान ज उत्पत्ति छे.
भावार्थःअनादिनिधन द्रव्यमां काळादि लब्धिथी अविद्यमान
अर्थात् अणछती पर्याय ज ऊपजे छे. पण एम नथी के ‘बधी पर्यायो
एक ज समयमां विद्यमान छे ते ढंकाती
ऊघडती जाय छे.’ परंतु समये
समये क्रमपूर्वक नवीन नवीन ज पर्यायो ऊपजे छे. द्रव्य तो त्रिकाळवर्ती
सर्व पर्यायोनो समुदाय छे अने काळभेदथी पर्यायो क्रमे थाय छे.
हवे द्रव्य अने पर्यायोने कथंचित् भेद-अभेदपणुं दर्शावे छेः
दव्वाण पज्जयाणं धम्मविवक्खाए कीरए भेओ
वत्थुसरूवेण पुणो ण हि भेदो सक्कदे काउं ।।२४५।।
द्रव्याणां पर्यायाणां धर्मविवक्षया क्रियते भेदः
वस्तुस्वरूपेण पुनः न हि भेदः शक्यते कर्तुम् ।।२४५।।
अर्थःद्रव्य अने पर्यायमां धर्म-धर्मीनी विवक्षाथी भेद करवामां
आवे छे; परंतु वस्तुस्वरूपथी भेद थई शकतो नथी.
भावार्थःद्रव्य अने पर्यायमां धर्म-धर्मीनी विवक्षाथी भेद
लोकानुप्रेक्षा ]
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