Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 257-258.

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अर्थःज्ञान छे ते ज्ञेयमां जतुं नथी तथा ज्ञेय पण ज्ञानना
प्रदेशोमां आवतां नथी; पोतपोताना प्रदेशोमां रहे छे, तो पण ज्ञान
तथा ज्ञेयमां ज्ञेय-ज्ञायक व्यवहार छे.
भावार्थःजेम दर्पण पोताना ठेकाणे छे अने घटादिक वस्तु
पोताना ठेकाणे छे, छतां दर्पणनी स्वच्छता एवी छे के जाणे घट
दर्पणमां आवीने ज बेठो होय! ए ज प्रमाणे ज्ञान-ज्ञेयनो व्यवहार
जाणवो.
हवे मनःपर्यय-अवधिज्ञान तथा मति-श्रुतज्ञाननुं सामर्थ्य कहे
छेः
मणपज्जयविण्णाणं ओहीणाणं च देसपच्चक्खं
मइसुयाणाणं कमसो विसदपरोक्खं परोक्खं च ।।२५७।।
मनःपर्ययविज्ञानं अवधिज्ञानं च देशप्रत्यक्षम्
मतिश्रुतज्ञानं क्रमशः विशदपरोक्षं परोक्षं च ।।२५७।।
अर्थःमनःपर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान ए बंने तो देशप्रत्यक्ष
छे; मतिज्ञान छे ते विशद एटले प्रत्यक्ष पण छे तथा परोक्ष पण छे,
तथा श्रुतज्ञान छे ते परोक्ष ज छे.
भावार्थःमनःपर्ययज्ञानअवधिज्ञान छे ते एकदेशप्रत्यक्ष छे,
कारण के जेटलो पोतानो विषय छे तेटलाने तो विशदस्पष्ट जाणे छे;
सर्वने जाणतुं नथी माटे तेने एकदेश कहीए छीए. मतिज्ञान छे ते
इन्द्रिय-मनथी ऊपजे छे माटे व्यवहारथी इन्द्रियना संबंधथी तेने विशद
पण कहीए छीए; ए प्रमाणे ते प्रत्यक्ष पण छे; परंतु परमार्थथी तो
ते परोक्ष ज छे. तथा श्रुतज्ञान छे ते परोक्ष ज छे, कारण के ते
विशद
स्पष्ट जाणतुं नथी.
हवे इन्द्रियज्ञान योग्य विषयने जाणे छे एम कहे छेः
इंदियजं मदिणाणं जोग्गं जाणेदि पुग्गलं दव्वं
माणसणाणं च पुणो सुयविसयं अक्खविसयं च ।।२५८।।
लोकानुप्रेक्षा ]
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