एकस्मिन् काले एकं ज्ञानं जीवस्य भवति उपयुक्तम् ।
नानाज्ञानानि पुनः लब्धिस्वभावेन उच्यन्ते ।।२६०।।
अर्थः — जीवने एक काळमां एक ज ज्ञान उपयुक्त अर्थात्
उपयोगनी प्रवृत्ति थाय छे; अने लब्धिस्वभावथी एक काळमां नाना
ज्ञान कह्यां छे.
भावार्थः — भावइन्द्रिय बे प्रकारनी कही छेः एक लब्धिरूप
तथा बीजी उपयोगरूप. त्यां ज्ञानावरणकर्मना क्षयोपशमथी आत्मामां
जाणवानी शक्ति थाय तेने लब्धि कहे छे अने ते तो पांच इन्द्रिय तथा
मन द्वारा जाणवानी शक्ति एक काळमां ज रहे छे, परंतु तेमां उपयोगनी
व्यक्तिरूप प्रवृत्ति छे ते ज्ञेय प्रत्ये उपयुक्त थाय छे त्यारे एक काळमां
एकथी ज थाय छे. एवी ज क्षयोपशमज्ञाननी योग्यता छे.
हवे, वस्तुने अनेकात्मपणुं छे तो पण अपेक्षाथी एकात्मपणुं पण
छे एम कहे छेः —
जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं ।
सुयणाणेण णएहिं य णिरवेक्खं दीसदे णेव ।।२६१।।
यत् वस्तु अनेकान्तं एकान्तं तदपि भवति सव्यपेक्षम् ।
श्रुतज्ञानेन नयैः च निरपेक्षं दृश्यते नैव ।।२६१।।
अर्थः — जे वस्तु अनेकान्त छे ते अपेक्षासहित एकान्त पण छे.
त्यां श्रुतज्ञानप्रमाणथी साधवामां आवे तो वस्तु अनेकान्त ज छे तथा
श्रुतज्ञानप्रमाणना अंशरूप नयथी साधवामां आवे तो वस्तु एकान्त पण
छे अने ते अपेक्षारहित नथी. कारण के, निरपेक्ष नय मिथ्या छे अर्थात्
निरपेक्षताथी वस्तुनुं स्वरूप जोवामां आवतुं नथी.
भावार्थः — वस्तुना सर्व धर्मोने एक काळमां साधे ते प्रमाण छे
तथा तेना एक एक धर्मोने ज ग्रहण करे ते नय छे. तेथी एक नय
बीजा नयनी सापेक्षता होय तो वस्तु साधी शकाय पण अपेक्षारहित
लोकानुप्रेक्षा ]
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