Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 264-265.

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भावार्थःवस्तुना एक धर्मनी विवक्षा लई जे लोकव्यवहारने
साधे ते श्रुतज्ञाननो अंश नय छे, अने ते साध्यधर्मने हेतुपूर्वक साधे
छे. जेम वस्तुना ‘सत्’ धर्मने ग्रहण करी तेने हेतुथी साधवामां आवे
के ‘पोतानां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी वस्तु सत्रूप छे’. ए प्रमाणे नय,
हेतुथी उपजे छे.
हवे, एक धर्मने नय केवी रीते ग्रहण करे छे ते कहे छेः
णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं
तस्सेयविवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं ।।२६४।।
नानाधर्मयुतः अपि च एकं धर्मं अपि उच्यते अर्थः
तस्यैकविवक्षातः नास्ति विवक्षा स्फु टं शेषाणाम् ।।२६४।।
अर्थःपदार्थ नाना धर्मथी युक्त छे तोपण तेने कोई एक
धर्मरूप कहेवामां आवे छे, कारण के एक धर्मनी ज्यां विवक्षा करवामां
आवे त्यां ते ज धर्मने कहेवामां आवे छे पण बाकीना सर्व धर्मनी
विवक्षा करवामां आवती नथी.
भावार्थःजेम जीववस्तुमां अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व,
अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, चेतनत्व, अमूर्तत्व आदि अनेक धर्म छे;
ते बधामांथी कोई एक धर्मनी विवक्षाथी कहेवामां आवे के ‘जीव
चेतनस्वरूप ज छे’ इत्यादि. त्यां अन्य धर्मनी विवक्षा नथी करी पण
तेथी एम न जाणवुं के अन्य धर्मोनो अभाव छे. परंतु अहीं तो
प्रयोजनना आश्रयथी तेना कोई एक धर्मने मुख्य करी कहे छे
अन्यनी
अहीं विवक्षा नथी (एम समजवुं).
हवे वस्तुना धर्मने, तेना वाचक शब्दने तथा तेना ज्ञानने नय
कहे छेः
सो चिय एक्को धम्मो वाचयसद्दो वि तस्स धम्मस्स
तं जाणदि तं णाणं ते तिण्णि वि णयविसेसा य ।।२६५।।
लोकानुप्रेक्षा ]
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