Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 266-267.

< Previous Page   Next Page >


Page 142 of 297
PDF/HTML Page 166 of 321

 

background image
सः एव एकः धर्मः वाचकशब्दः अपि तस्य धर्मस्य
तम् जानाति तत् ज्ञानं ते त्रयो अपि नयविशेषाः च ।।२६५।।
अर्थःवस्तुनो (कोई) एक धर्म, ते धर्मनो वाचक शब्द तथा
ते धर्मने जाणवावाळुं ज्ञान ए त्रणेय नयना विशेष (भेद) छे.
भावार्थःवस्तुनुं ग्रहण करवावाळुं ज्ञान, तेनो वाचक शब्द
तथा वस्तु, एने (ए त्रणेने) जेम प्रमाणस्वरूप कहेवामां आवे छे तेम
नय पण कहेवामां आवे छे.
हवे वस्तुना एक ज धर्मने ग्रहण करे एवा एक नय (ज्ञान)ने
मिथ्यात्व शा माटे कहेवामां आवे छे? तेनो उत्तर कहे छेः
ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति
सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण ।।२६६।।
ते सापेक्षाः सुनयाः निरपेक्षाः ते अपि दुर्णयाः भवन्ति
सकलव्यवहारसिद्धिः सुनयात् भवति नियमेन ।।२६६।।
अर्थःप्रथम कहेला त्रण प्रकारना नय ते जो परस्पर
अपेक्षासहित होय तो ते सुनय छे; परंतु ए ज ज्यारे अपेक्षा रहित
सर्वथा एक एक ग्रहण करवामां आवे त्यारे ते दुर्नय (मिथ्यानय) छे.
सुनयोथी सर्व व्यवहारनी (वस्तुना स्वरूपनी) सिद्धि थाय छे.
भावार्थःनय छे ते बधाय सापेक्ष होय तो सुनय छे अने
निरपेक्ष होय तो कुनय छे. सापेक्षताथी सर्व वस्तुव्यवहारनी सिद्धि छे
सम्यक्ज्ञान स्वरूप छे तथा कुनयोथी सर्व लोकव्यवहारनो लोप थाय छे
मिथ्याज्ञानरूप छे.
हवे, परोक्षज्ञानमां अनुमानप्रमाण पण छे, तेनुं द्रष्टांतपूर्वक
स्वरूप कहे छेः
जं जाणिज्जइ जीवो इंदियवावारकायचिट्ठाहिं
तं अणुमाणं भण्णदि तं पि णयं बहुविहं जाण ।।२६७।।
१४२ ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा