Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 313-314.

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अने तेनुं फळ अज्ञाननो नाश थई उपादेयनी बुद्धि तथा वीतरागतानी
प्राप्ति छे. आ कथननो मर्म (रहस्य) पामवो महाभाग्यथी बने छे. आ
पंचम काळमां हाल आ कथनीना वक्ता गुरुनुं निमित्त सुलभ नथी. तेथी
शास्त्रने समजवानो निरंतर उद्यम राखी (शास्त्रने यथार्थ) समजवुं योग्य
छे; कारण के मुख्यपणे तेना आश्रये सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे. जोके
जिनेन्द्र-प्रतिमानां दर्शन तथा प्रभावनाअंगनुं देखवुं इत्यादि सम्यक्त्वनी
प्राप्तिनां कारणो छे तो पण शास्त्रश्रवण करवुं, भणवुं, तेनुं चिंतवन करवुं,
धारण करवुं तथा हेतु
युक्तिपूर्वक स्वमत-परमतना भेदने (तफावतने)
जाणी, नयविवक्षा समजी, वस्तुना अनेकान्तस्वरूपनो निश्चय करवो ए
मुख्य कारण छे. तेथी भव्यजीवोए तेनो (आगमना अभ्यासनो) उपाय
निरंतर राखवो योग्य छे.
हवे सम्यग्द्रष्टि थतां अनंतानुबंधीकषायनो अभाव थई तेना केवा
परिणाम थाय छे ते कहे छेः
जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु
उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं ।।३१३।।
यः न च कुर्वते गर्वं पुत्रकलत्रादिसर्वार्थेषु
उपशमभावान् भावयति आत्मानं मन्यते तृणमात्रम् ।।३१३।।
अर्थःजे सम्यग्द्रष्टि छे ते पुत्र-कलत्र आदि सर्व परद्रव्यो
तथा परद्रव्योना भावोमां गर्व करतो नथी, (जो परद्रव्योथी पोताने मोटो
माने तो तेने सम्यक्त्व शानुं?) उपशमभावोने चिंतवे छे. अनंतानुबंधी
संबंधी तीव्र राग-द्वेष परिणामोना अभावथी उपशमभावोनी निरंतर
भावना राखे छे तथा पोताना आत्माने तृणसमान हलको माने छे,
कारण के पोतानुं स्वरूप तो अनंत ज्ञानादिरूप छे एटले ज्यां सुधी
तेनी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी ते पोताने तृण बराबर माने छे, कोई
पदार्थमां गर्व करतो नथी.
विसयासत्तो वि सया सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि
मोहविलासो एसो इदि सव्वं मण्णदे हेयं ।।३१४।।
धर्मानुप्रेक्षा ]
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